________________ (92) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध का हार, क्षीरसमुद्र का पानी, चन्द्रमा की किरण, पानी के कण तथा रूपा का पर्वत इनके जैसा सफेद शरीर है जिसका, ऐसा है। वह सिंह रमणीय देखने योग्य है। दृढ़ हैं हाथ प्रमुख के अवयव जिसके, तथा उज्ज्वल गोल और तीक्ष्ण ऐसी जिसके मुख में दाढ़ें हैं, इन दाढ़ों से मुख शोभायमान है जिसका, कमल सरीखे सुकोमल लाल होंठ हैं जिसके, लाल कमलपत्र के समान तालु है जिसका, ऐसा सिंह जीभ बाहर निकाल कर लपलपायमान करता हुआ शोभायमान हो रहा है। तथा पीले बिजली सरीखे चमकते नेत्र हैं जिसके, विस्तीर्ण और पुष्ट तथा मस्त जंघाएँ हैं जिसकी, दृढ़ परिपूर्ण निर्मल स्कंध है जिसका तथा सुकोमल हैं भले विस्तीर्ण सिंहकेसर (मुख के केश) जिसके और सिंहकेसर के आटोप से सुशोभित है मुख जिसका, तथा जमीन पर पछाड़ कर ऊपर उठायी है पूँछ जिसने, ऐसी पूँछ का अन्त याने सिरा कान के मध्य में है जिसके तथा सौम्याकारवाला लीला करता हुआ आकाश से उतरता हुआ, त्रिशला के मुख में प्रवेश करता हुआ, ऐसा सिंह त्रिशला ने तीसरे सपने में देखा। चौथे स्वप्न में त्रिशला क्षत्रियाणी ने संपूर्ण पूनम के चन्द्रमा सरीखा है मुख जिसका, ऐसी लक्ष्मी देवी को देखा। वह लक्ष्मी कहाँ रहती है? सो कहते हैं- ऊँचे हिमालय पर्वत परं एक पद्मद्रह है। उस द्रह में एक कमल है। वहाँ रहने वाली लक्ष्मी देवी का पैरों से लगा कर सारे अंग की शोभा का वर्णन श्री भद्रबाहुस्वामी करते हैं। क्योंकि प्रायः देवों के रूप वर्णन में पैरों से वर्णन शुरु किया जाता है, इसलिए यहाँ भी पैरों से ले कर वर्णन करते हैं। उस लक्ष्मी देवी के पैर भले प्रकार से सोने के कछुए सरीखे मानो लाख के रंग में रंगे मांस सहित ऐसे, बीच में अति ऊँचे और पीछे झुके हुए ऐसे हैं। तथा ताँबे सरीखे नख हैं, कमल सरीखी कोमल उँगलियाँ है। पिंडियाँ केले सरीखी गोल हैं। नीचे नीचे पतली और ऊपर ऊपर मोटी ऐसी जंघापिंडियाँ हैं। घुटने मांस से भरे हुए हैं, इसलिए गुप्त हैं। वहाँ हड्डी दिखाई नहीं देती। तथा ऐरावत हाथी के समान जंघा का मध्यप्रदेश सुशोभित है। उसकी कमर में सोने की कटिमेखला है।