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________________ टीका-उक्त अध्ययन के विषय को श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने स्वयं जाना है। बाद में देवों एवं मनुष्यादि की परिषद् में उसका वर्णन किया है। इतना ही नहीं, किन्तु उस विषय का उन्होंने स्वयं आचरण भी भलीभाँति किया है। प्रत्येक व्यक्ति को इस अध्ययन का पाठ करना चाहिए, क्योंकि इसमें सर्वविरतिरूप चारित्र अर्थात महाव्रतादि के पालन की विधि युक्तिपूर्वक वर्णन की गई है। यहाँ यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि, जब श्री भगवान् ने जीवों के रहने के षट्-स्थान वर्णन किए हैं, जिससे कि इस अध्ययन का नाम भी 'षड्-जीव-निकाय अध्ययन' रक्खा गया है, तो पहले यह सिद्ध होना चाहिए कि, जीव की सत्ता भी है या नहीं ? इसका समाधान यह है कि, जीव के विद्यमान होने पर ही चारित्र-धर्म का प्रतिपादन किया जा सकता है, क्योंकि जब जीव ही न होगा तब फिर चारित्र-धर्म का प्रतिपादन किस लिए किया जाता ? अतएव आत्मा है और वह अनेक प्रमाणों से सिद्ध है। वीर्य और उपयोग, आत्मा के आत्मभूत लक्षण वर्णन किए गए हैं। ये लक्षण आत्म-द्रव्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं पाए जाते। मृतादि शरीरों के सब अवयव विद्यमान होने पर भी उक्त लक्षणों के न होने से ही उन्हें मृतक शरीर कहा जाता है। अनुमान से अनुमेय पदार्थों की सिद्धि की जाती है। अतः जब यह विचार किया जाता है कि, 'मेरा सिर दुख रहा है' इस कथन से यह सिद्ध होता है कि अहं प्रत्यय कहने वाला कोई अन्य पदार्थ अवश्य है और उससे सम्बन्ध रखने वाला शरीर पदार्थ अन्य है। इससे जीव की सत्ता शरीर से पृथक सिद्ध है तथा-उपमान से भी जीव-सत्ता स्व-अनभव से स्वतः सिद्ध है. क्योंकि जब कोई अपने अन्तःकरण में इस प्रकार के भाव उत्पन्न करता है कि, 'मेरी आत्मा है ही नहीं तो इस कथन से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि, यह चैतन्य संज्ञा किसकी है, क्योंकि चेतनःसंज्ञा वाला ही जीव पदार्थ कहा जाता है। आप्त वाक्य रूप जो आगम हैं, वे तो जीव-सत्ता स्वीकार करते ही हैं, इसलिए आत्म-द्रव्य सद् रूप है तथा-आत्मा के सत् मामने पर पाँचों इन्द्रियों के पाँचों विषयों का ग्राह्य और ग्राहक भाव माना जा सकता है। जब आत्मा की ही नास्ति कर दी जाएगी तब ग्राह्य और ग्राहक भाव का भी अभाव मानना पड़ेगा। अतएव आत्मा है और वह अतीन्द्रिय होने से आगम प्रमाण से भी मानना पड़ेगा तथा प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अस्तित्व मानने से ही आस्तिक माना जाता है। वह आत्म-द्रव्य षट्-काय में विद्यमान है तथा जब इस प्रकार की शङ्का उत्पन्न की जाए कि, असंख्यात परिमाण वाले लोक में अनन्त आत्माएँ किस प्रकार समाई हुई हैं? तो इसका उत्तर यह है कि, आत्मा द्रव्य अरूपी-सूक्ष्म-है, जिस प्रकार कि दीपक की प्रभा में सहस्र दीपकों का प्रकाश समा जाता है, ठीक उसी प्रकार इस लोक में अनन्त जीव-द्रव्य समाए हुए हैं तथा जिस प्रकार किसी एक व्यक्ति के मस्तक में बीस-बत्तीस भाषाएँ तथा अनेक नगर आदि की आकृतियाँ ठहर सकती हैं, ठीक उसी प्रकार असंख्यात लोक में अनन्त आत्माएँ समाई हई हैं। श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामी ने उस आत्म-द्रव्य को अनादि-अनन्त प्रतिपादन किया है। वह आत्म-द्रव्य, सम्यक्-दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र द्वारा कर्मों से विमुक्त हो सकता है। इन्हीं तीन बातों पर उसका निर्वाण-पद निर्भर है। इस अध्ययन में इसी बात को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है। * सूत्र में 'भंते !'-'भगवान्' शब्द भी है। संस्कृत में 'भग' शब्द छ: अर्थों में व्यवहृत होता है। उन अर्थों के धारण करने से ही श्री महावीर स्वामी 'भगवान्' कहलाते हैं। 'भग' शब्द के छः अर्थ हैं : 'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग 38] दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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