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________________ इतीरणा' अर्थात् संपूर्ण ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न का नाम 'भग' है। सूत्रकर्ता ने मूल में जो 'सुअक्खाया' - 'स्वाख्याता' पद रक्खा है, उसका तात्पर्य यह है कि उन्होंने उक्त प्रकरण को स्वयं केवल ज्ञान द्वारा जानकर ही जनता के आगे प्रतिपादन किया है, न कि किसी से सुनकर। सूत्र के 'इह' शब्द से इस लोक में या प्रवचन में इस विषय का अस्तित्व सिद्ध किया गया है। 'खलु' शब्द से इस बात को सिद्ध किया गया है कि अन्य-तीर्थ-कृत प्रवचन में भी इस विषय का कहीं-कहीं पर अस्तित्व पाया जाता है। सूत्र में जो 'सुयं मे'-'श्रुतं मया' पाठ रक्खा है, उससे एकान्त क्षणिक-वाद का निषेध किया गया है, क्योंकि एकान्त क्षणिक-वाद में संपूर्ण विषय को एक आत्मा सुन ही नहीं सकती तथा 'मे'-'मया' जो आत्म-निर्देश पद दिया गया है, इसका यह तात्पर्य है कि मैंने स्वयं सुना है, परम्परा से नहीं करें। 'आउसं!'-'आयुष्मन् !' पद का इसलिए निर्देश किया गया है कि आयुष्कर्म के होने पर ही श्रृत ज्ञान की सार्थकता है, अन्यथा. नहीं, आउसं!,-आयुष्मन् !' शब्द से यह सिद्ध होता है कि गुणवान् शिष्य को ही आगम का रहस्य बतलाना चाहिए, अयोग्य शिष्य को नहीं, क्योंकि यदि अपरिपक्व कच्चे घड़े में जल रक्खा जाए, तो जल-द्रव्य वा घट-द्रव्य, दोनों की ही हानि होती है। ठीक उसी प्रकार अयोग्य शिष्य को सूत्रदान करने से श्रुत का उपहास और आत्मा का अध: पतन हो जाने से अत्यन्त हानि होने की संभावना की जा सकती है। यदि 'आउसं तेणं' को एक पद मानकर श्री भगवान् का विशेषण माना जाए, तब उक्त सूत्र की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए कि-'आयष्मता भगवता चिरजीविनेत्यर्थः' अर्थात आयष्य वाले श्री भगवान् ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है। इस कथन से अपौरुषेय वाद का निषेध हो जाता है, क्योंकि आयुष्य वाला देहधारी होता है और वही भाषण कर सकता है। वर्णों के स्थान शरीर के होने पर ही सिद्ध हो सकते हैं। इसी लिए अकाय परमात्मा सिद्ध भगवान् भाषण नहीं कर सकते तथा आप्तवाक्य पौरुषेय ही होता है। यह शास्त्र आप्तवाक्य है, अतः पुरुषकृत है। यदि-'आउसंतेणं' के स्थान पर 'आवसंतेणं'-'आवसता' पाठ मान लिया जाए, तब इसका यह अर्थ हो जाता है कि-'गुरुकुलमावसता' अर्थात् 'गुरु के पास रहते हुए। इससे सिद्ध होता है कि गुरु के पास शिष्य को सदैव रहना चाहिए। गुरु के पास रहने से ही ज्ञानादि की वृद्धि हो सकती है, गुरुकुल-वास को छोड़कर नहीं। यदि-'आउसंतेणं' के स्थान पर 'आमुसंतेणं'-'आमृशता' पाठ पढ़ा जाए तो उसका अर्थ होता है-'आमृशता भगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमाङ्गेन' इससे गुरू की विनय सिद्ध होती है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक गुरु के चरण-कमलों का स्पर्श करते हैं, वे ही मोक्ष-मार्ग, ज्ञानादि के सर्वथा आराधक बनते हैं। विनय-धर्म सब कार्यों का साधक माना गया है। श्रमण तपस्वी भगवान् श्री महावीर स्वामी ने ही उक्त विषय का प्रकाश किया है और अपना वीर पद सार्थक किया है। जैसे कि-'विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते। तपोवीर्येण यक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मतः' अर्थात् कर्मों के विदारण करने से, तप-सहित विराजमान होने से और तप तथा वीर्य युक्त होने से श्री महावीर स्वामी 'वीर' कहलाते हैं। सूत्र में जो 'सेयं मे अहिंज्जियं' पद है, वह न सिर्फ अध्ययन अर्थ को कहता है, बल्कि इस अध्ययन का पढ़ना, सुनना, मनन करना, अन्त:करण में भावना उत्पन्न करना आदि सभी अर्थों को कहता है। सूत्र में 'अज्झयणं धम्मपण्णत्ती' जो दोनों पद प्रथमान्त दिए गए हैं, उनमें से 'धम्मपण्णत्ती' में प्रथमा हेतुवाचक है। इसका अर्थ यह होता है कि इसके अध्ययन से धर्म की प्राप्ति होती है-आत्मा की विशुद्धि चतुर्थाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [39
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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