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________________ सर्व दुःखों के पहीणट्ठा-नाश करने के लिए पक्कमंति-पराक्रम करते हैं। मूलार्थ- परीषहरूपी वैरियों को जीतने वाले, मोह को दूर करने वाले तथा इन्द्रियों को जीतने वाले महर्षि सब प्रकार के दुःखों का नाश करने के लिए पराक्रम करते हैं। टीका- इन सब क्रियाओं को महर्षि एक निर्वाण-पद की प्राप्ति के लिए ही करते हैं। जिसमें कि शारीरिक और मानसिक एक भी प्रकार का दुःख नहीं है। परीषह को जो वैरी की उपमा दी गई है, वह इसलिए कि शत्रु जिस तरह अपने इष्ट कार्य में विघ्न डालने वाले और दुःख देने वाले होते हैं, उसी प्रकार ये परीषह भी महर्षि के निर्वाण-पद की प्राप्ति में विघ्नरूप हैं तथा आत्मा को दुःख देने वाले होते हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकर्ता परीषहों को सहन करने का फल वर्णन करते हुए कहते हैं:दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाइं सहित्तु य। केइ त्थ देवलोएसु, केइ सिझंति नीरया॥१४॥ दुष्कराणि कृत्वा, दुःसहानि सहित्वा च। केचिदत्र देवलोकेषु, केचित् सिद्ध्यन्ति नीरजस्काः॥१४॥ पदार्थान्वयः-दुक्कराइं-दुष्कर आतापनादि क्रियाओं को करित्ताणं-करके य-फिर दुस्सहाई-असहनीय क्रियाओं को सहित्तु-सह करके केइ-कितनेक इत्थ-यहाँ से देवलोएसुदेवलोकों में जाते हैं केइ-कितने नीरया-कर्मरज से रहित होकर सिझंति-सिद्ध हो जाते हैं। - मूलार्थ-दुष्कर क्रियाओं को करके और दुःसह कष्टों को सहकर कई एक यहाँ से मरकर देवलोकों में उत्पन्न होते हैं और कितने कर्मरज से सर्वथा विमुक्त होकर सिद्ध हो जाते हैं। - टीका-दुष्कर क्रियाएँ- जैसे औद्देशिक आहार-त्याग आदि। दुस्सह क्रियाएँजैसे आतापनादि योग। इन क्रियाओं को पालन करते हुए जो अपनी आत्मा को प्रसन्न करते हैं, वे साधु यहाँ से शरीर छोड़कर स्वर्ग जाते हैं और कितने ही मोक्ष को भी जाते हैं। मोक्ष को वही जाते हैं, जिनके कर्मरज बिल्कुल नष्ट हो गए हैं। उक्त दुष्कर क्रियाओं के द्वारा जिन्होंने स्वर्ग पाया है, वे भी स्वर्ग की आयु को पूर्णकर फिर मनुष्य-भव धारण कर कर्मों का नाश कर मोक्ष को जाएँगे। लेकिन ये फल साधु को तभी प्राप्त होंगे, जब उनकी उपरोक्त क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक होंगी। अज्ञानपूर्वक किए गए दुष्कर कर्म और सहन किए गए दुस्सह परीषह, सातावेदनीय कर्म के बाँधने वाले भले ही हो जाएँ ; मोक्षदायक नहीं हो सकते। गाथा में 'सिझंति' जो वर्तमान काल की क्रिया दी गई है, वह त्रिकालवर्ती भाव को द्योतित करती है अर्थात् ऐसा हमेशा होता उत्थानिका- अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हुए इस अध्ययन का उपसंहार करते हैं:.. खवित्ता पुव्वकम्माइं, संजमेण तवेण य। सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिणिव्वुडा॥१५॥ 35] दशवैकालिकसूत्रम् [तृतीयाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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