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________________ लिए सारांश यह निकला कि संसार की जितनी भी गतियाँ हैं, वे सब सीधी नहीं हैं। केवल मोक्ष की गति सीधी होती है। संसार को छोड़कर जीव जब मोक्ष को जाता है, तब उसको मार्ग में मोड़ नहीं लेना पड़ता। इसलिए मोक्ष का नाम ऋजु-गति है। दूसरे- वास्तव में देखा जाए तो असंयम का मार्ग टेढ़ा और कण्टकाकीर्ण है और संयम का मार्ग सीधा तथा निरापद है। संसारी जीवों को अनादिकाल की आदत की वजह से असंयम-मार्ग ही रूचिकर होता है, यह दूसरी बात है। लेकिन संयम का मार्ग है सीधा / इसमें परिणामों की वक्रता या कुटिलता की आवश्यकता नहीं है। इसलिए 'ऋजुदर्शी' शब्द के दो अर्थ हैं- एक संयम को देखने वाले , दूसरा, मोक्ष को देखने वाले। दोनों ही अर्थ यहाँ पर ग्राह्य हैं। इन उपरोक्त विशेषणों का निर्ग्रन्थ के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। अर्थात् इतने विशेषण जिसमें हों, वही व्यक्ति निर्ग्रन्थ है, अन्य नहीं। ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार इस विषय का वर्णन करते हैं कि वे ऋजुदर्शी आत्माएँ काल को अधिकृत्य करके यथाशक्ति ये भी क्रियाएँ करती हैं। जैसे कि: आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा। वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया॥१२॥ आतापयन्ति ग्रीष्मेषु, हेमन्तेष्वप्रावृताः / वर्षासु प्रतिसंलीनाः, संयताः सुसमाहिताः॥१२॥ पदार्थान्वयः- संजया-संयमी साधु गिम्हेसु-ग्रीष्म-काल में आयावयंति-सूर्य की आतापना लेते हैं हेमंतेसु-शीत-काल में अवाउडा-अप्रावृत हो जाते हैं वासासु-वर्षा-काल में पडिसंलीणा-एक स्थान में इन्द्रिय वश करके बैठते हैं सुसमाहिया-ज्ञानादि में सदा तत्पर रहते हैं। मूलार्थ-कभी साधुग्रीष्म-काल मेंआतापना लेते हैं, शीत-काल में शीतापहारक वस्त्र नहीं ग्रहण करते, वर्षा-काल में एक स्थान पर इन्द्रिय वश करके बैठते हैं और ज्ञान-ध्यान में सदा तत्पर रहते हैं। टीका- एक साल में तीन प्रधान ऋतुएँ और उनकी उपऋतुएँ होती हैं। यहाँ पर तीन प्रधान ऋतुओं की अपेक्षा से वर्णन है। अर्थात् साधु के लिए तीनों ऋतुओं में पृथक्-पृथक् कृत्य वर्णन किए गए हैं। गाथा में जो सब शब्द बहु-वचनान्त दिए गए हैं, उनका तात्पर्य यह है कि प्रतिवर्ष ऐसा करना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं कि उक्त क्रियाएँ साधु किस लिए करते हैं: परीसहरिऊदंता , धूअमोहा जिइंदिया। सव्वदुक्खपहीणट्ठा , पक्कमंति महेसिणो॥१३॥ परीषहरिपुदान्ताः , धुतमोहा जितेन्द्रियाः। सर्वदुःखप्रहाणार्थम् , प्रकाम्यन्ति महर्षयः॥१३॥ पदार्थान्वयः-परीसह-परीषहरूपी रिऊ-शत्रु को दंता-दमन करने वाले ●अमोहामोह-कर्म को दूर करने वाले जिइंदिया-इन्द्रियों को जीतने वाले महेसिणो-महर्षि सव्वदुक्खतृतीयाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [34
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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