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________________ गाथा में 'निर्ग्रन्थ' के बाद 'महर्षि' शब्द के रखने का तात्पर्य यह है कि जो वास्तव में निर्ग्रन्थ होगा, वही 'महर्षि' हो सकता है, अन्य नहीं। __उत्थानिका- इस प्रकार मुनि के अनाचीर्णों का वर्णन करके सूत्रकार अब वास्तविक साधुओं का स्वरूप प्रतिपादन करना चाहते हैं। उनमें से सब से प्रथम 'निर्ग्रन्थ' का स्वरूप कहते हैं: पंचासवपरिणाया , तिगुत्ता छसु संजया। पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो॥११॥ पञ्चास्त्रवपरिज्ञाताः , त्रिगुप्ताः षट्सु संयताः। पञ्चनिग्रहणा धीराः, निर्ग्रन्था ऋजुदर्शिनः॥११॥ पदार्थान्वयः- पंचासव-पाँच आस्रवों के परिणाया-जानने वाले एवं त्याग करने वाले तिगुत्ता-तीन गुप्तियों के धारक छसुसंजया-षट्काय के जीवों की रक्षा करने वाले पंचनिग्गहणापाँच इन्द्रियों के निग्रह करने वाले धीरा-धीर-निर्भय-सात भयों से रहित उज्जुदंसिणो-मोक्ष वा संयम देखने वाले निग्गंथा-निर्ग्रन्थ होते हैं। . मूलार्थ-जो पाँचों आस्त्रवों के परिज्ञाता एवं त्यागने वाले, त्रिगुप्त, षद्काय के जीवों की रक्षा करने वाले, पाँच इन्द्रियों के निग्रह करने वाले, निर्भय एवं मोक्ष तथा मोक्ष के कारणभूत संयम के देखने वाले हैं, वे निर्ग्रन्थ होते हैं। . टीका- पञ्चास्रवपरिज्ञाता- कर्मों के आगमन-द्वार को 'आस्रव' कहते हैं। जब आत्मा पाप कर्मों को करने लगती है, तभी उसको असुभ कर्मास्रव होता है। पाप पाँच हैं- 1 हिंसा, 2 झूठ 3 चोरी, 4 कुशील, 5 परिग्रह / जो आत्मा इनको छोड़ देगी, उसी को, इनके निमित्त से होने वाला आस्रव नहीं होगा। इन्हें छोड़ेगी वही, जो इनके असली स्वरूप से परिचित हो जाएंगी। इनका असली स्वरूप शास्त्रकारों ने दु:ख के कारण और दुःख-स्वरूप बतलाया . यहाँ पर शङ्का यह होती है कि अशुभ आस्रव तो उन जीवों को नहीं होगा जो उक्त पाँचों पापों को करेंगे नहीं। नहीं करने का' वाचक शब्द गाथा में नहीं है। गाथा में तो परिज्ञाता' शब्द है, जिसका अर्थ जानने वाला होता है और यही अर्थ ऊपर किया भी गया है ? इसका उत्तर यह है कि परिज्ञा- जानकारी- दो तरह की होती है। एक ज्ञ-परिज्ञा, दूसरी प्रत्याख्यानपरिज्ञा / प्रत्याख्यान-परिज्ञा का अर्थ है, उनका अशुभ स्वरूप जानकर उनको सर्वथा त्याग देना। यहाँ पर यही प्रत्याख्यान-परिज्ञा ग्रहण करनी चाहिए। त्रिगुप्त-१ मनोगुप्ति, 2 वाग्गुप्ति, 3 कायगुप्ति, ये तीन गुप्तियाँ हैं, इनका पालन करना। षट्संयत-१ पृथ्वीकाय, 2 अप्काय, 3 तेजस्काय, 4 वायुकाय, 5 वनस्पतिकाय, 6 त्रसकाय, इन षट् कायिक जीवों की रक्षा करना। पञ्चनिग्रहक- 1 स्पर्शन, 2 रसन, 3 घ्राण, 4 चक्षु 5 श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रियाँ हैं, इनके निग्रह करने में समर्थ। धीर- परीषहोपसर्ग सहने में स्थिरचित्त / ऋजुदर्शी-जीव जब एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है, तब उसकी 'विग्रहगति' होती है। 'विग्रहगति' में 'विग्रह' शब्द का अर्थ 'मोड़ लेना' किया गया है। इस दशवैकालिकसूत्रम् [तृतीयाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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