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________________ कार्य अकर्त्तव्य हैं। 47. वमन- शरीर को बलयुक्त बनाने के लिए वैद्यकमतानुसार किसीकिसी औषधि के सेवन के पहले वमन कराने की आवश्यकता होती है। मुनि ब्रह्मचर्य महाव्रत के प्रताप से स्वतः ही अतुलबलशाली होते हैं। उन्हें बाह्य पौष्टिक उपचार की कतई जरुरत नहीं है। 48. वस्तिकर्म- 'पुटकेनाध:स्थाने स्नेहदानम्' अर्थात् अधोमार्ग से पिचकारी आदि द्वारा मल निकालना। हठ-योगी ऐसा भी अभ्यास प्रायः किया करते हैं कि शरीर से नसा-जाल को बाहर निकाल लेना आदि। जिसे कि 'न्योली-कर्म' कहते हैं। यह सब जैन साधु के लिए अनाचीर्ण है। 49, 53. विरेचन, अञ्जन, दन्तकाष्ठ, गात्राभ्यङ्ग और विभूषण; आरम्भ-जन्य हिंसा और सौन्दर्य-लालसा के त्यागी होने से साधु के लिए ये सब अनाचरित हैं। . इन सब कामों को अनाचार के अन्दर गिनते हुए पाठकों को यह बात भूल न जानी चाहिए कि वर्णन सर्वत्र उत्सर्ग-मार्ग का ही किया जाता है, अपवाद मार्ग का नहीं, क्योंकि उसमें अपवाद-मार्ग का निषेध नहीं होता। इसलिए किसी मुनि को आँखों में जब कोई व्यथा उत्पन्न हो जाए तो वह उस समय रसाञ्जन ग्रहण कर सकता है, क्योंकि अञ्जन का त्याग सौन्दर्य की दृष्टि से है न कि सर्वथा। इस प्रकार से कारण उपस्थित हो जाने पर वह विरेचन आदि ले सकता है, क्योंकि, निशीथ-सूत्र के 13 वें उद्देशक में पाठ आता है कि-'जे भिक्खू आरोगिय पडिक्कम करेइ करंतं वा साइज्जइ' अर्थात् जो साधु रोग-रहित दशा में औषधि लेता है उसे प्रायश्चित आता है। इसी प्रकार के अपवाद मार्ग के अन्य भी कार्य स्वयं कल्पित किए जा सकते हैं। उत्थानिका- सूत्रकार अब साधु के अनाचीर्णों का उपसंहार करते हुए कहते हैं . किः सव्वमेयमणाइण्णं , निग्गंथाण महेंसिणं। संजमंमि अजुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं // 10 // सर्वमेतदनाचीर्णम् , निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम् / संयमे च युक्तानाम् , लघुभूतविहारिणाम् // 10 // पदार्थान्वयः- संजमंमि-संयम में अ-चकार शब्द से तप में जुत्ताणं-युक्तों के लहुभूयविहारिणं-लघुभूत होकर विहार करने वाले निग्गंथाण-निर्ग्रन्थ महेसिणं-महर्षियों के एय-ये सव्वं-सब अणाइण्णं-अनाचीर्ण हैं। मूलार्थ-संयम और तप में युक्त तथा वायुवत् लघुभूत होकर विचरने वाले निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए ये सब अनाचीर्ण हैं-आचरण करने योग्य कृत्य नहीं हैं। टीका- जो वायु की भाँति अप्रतिबद्ध गति हैं, द्रव्य और भाव से सदैव लघुभूत हैं और संयम तथा तप में तल्लीन हैं, ऐसे निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए उपरोक्त औद्देशिकादि क्रियाएँ आचरण करने योग्य नहीं हैं। 1 यद्यपि उपरोक्त अनाचीणों में से अनेक ऐसे हैं कि जिन्हें सर्व-साधारण गृहस्थ बिना किसी दोषापत्ति समझे पालते हैं / लेकिन मुनियों के लिए ये ही अनाचीर्ण हो जाते हैं / इसका कारण यही है कि मुनि का चरित्र बहुत . उच्च एवं उजवल होता है / उनके लिए थोड़ा सा भी दोष अनाचीर्ण हो जाता है / बिलकुल सफेद चद्दर पर थोड़ा सा भी मैल, मैल मालूम देता है और जो कपड़ा बहुत मैला हो रहा है, उस पर भले ही उससे अधिक मैल चढ़ जाए, लेकिन वो मैला नहीं मालूम देता। तृतीयाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [32
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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