________________ यहाँ एक शंका यह हो रही है किगाथा में सौवच्चलं'-'सौवर्चल' और 'कालालोणे''कृष्ण लवण' ये दोनों ही शब्द दिए हैं। कृष्ण लवण' का तो 'काला नमक' अर्थ स्पष्ट ही है। लेकिन 'सौवर्चल' शब्द का अर्थ भी 'काला' ही होता है। इस तरह वैद्यक मतानुसार दोनों ही शब्दों का काला नमक' ही अर्थ होता है। यथा-'सौवर्चलं स्याद्रुचकं, मन्थपाकं च तन्मतम्' अर्थात् सौवर्चल रूचक और मन्थपाक, ये तीनों ही काले नमक के वाचक हैं। - भावप्रकाश, हरतिक्यादि वर्ग। इसका उत्तर यह है कि यद्यपि वैद्यकमतानुसार 'सौवर्चल' शब्द का अर्थ काला नमक ही होता है। लेकिन संस्कृत-भाषा में एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ होते हैं। तदनुसार 'सौवर्चल' शब्द का अर्थ 'सज्जी' भी होता है। यथा 'पाक्योऽथ स्वर्जिकाक्षारः, कापोतः सुखवर्चकः। सौवर्चलं स्याद्रुचकं, त्वक्षीरी वंशरोचना।'-अमरकोष। स्वर्जिकाक्षारः, कापोतः सुखवर्चकः, सौवर्चलम् रुचकमिति पञ्चक्षारभेदस्य- 'साजीक्षार' इतिख्यातस्य' अर्थात् स्वर्जिकाक्षार, कापोत, सुखवर्चक, सौवर्चल और रुचक, ये पाँच नाम क्षार-भेद के जो कि 'साजी'-'सज्जी' के नाम से प्रसिद्ध है, उसके हैं। इति तत्सुधाख्या व्याख्या। अन्यच्च-'अथ सौवर्चलं सर्जक्षारे च लवणान्तरे' अर्थात् 'सौवर्चल' शब्द सज्ज मेदिनीकोष। यहाँ पर यह बात ध्यान में रखने की है कि आजकल बाजार में जो काला नमक बिकता है, उसका निषेध नहीं है। वह तो कृत्रिम है- निर्मित है- बनाया हुआ है। अत एव अचित्त है। मुनि उसे ग्रहण करते हैं। अकृत्रिम काला नमक दूसरा होता है। वह स्वभावतःप्राकृतिक-ही काला होता है। उसका यहाँ सचित्त होने की वजह से निषेध है। अचित्त हो जाने पर उसे भी मुनि ग्रहण कर सकते हैं। तथा च :धूवणे त्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे। अंजणे दंतवणे य, गायब्भंगविभूसणे // 9 // धूपनमिति वमनं च, वस्तिकर्म विरेचनम्। अञ्जनं दन्तवर्णश्च च, गात्राभ्यङ्गविभूषणे॥९॥ पदार्थान्वयः- धूवणे त्ति-वस्त्रादि को धूप देना य-पुनः वमणे-वमन करना वत्थीकम्म-अधोमार्ग से स्नेह-गुटकादि द्वारा मल उतारना विरेयणे-जुलाब लेना अंजणे-आँखों में अञ्जन डालना य-फिर दंतवणे-दाँतुन करना गायब्भंग-शरीर को तैलादि लगाना विभूसणेशरीर को विभूषित करना। . मूलार्थ-४६ वस्त्रादि को धूप देना, 47 वमन करना, 48 वस्तिकर्म करना, 49 विरेचन लेना, 50 आँखों में अंजन डालना, 51 दाँतुन करना, 52 गात्राभ्यङ्गकरना, 53 शरीर को विभूषित करना, ये सब मुनि के लिए अनाचीर्ण हैं। टीका-४६. धूपन-अपने शरीर को तथा वस्त्रादि को किसी प्रकार के धूप के द्वारा सगन्धित करना तथा कोई-कोई इस पद का यह भी अर्थ करते हैं कि अनागत कालीन व्याधि की निवृत्ति के लिए धूम्रपान-हुक्का का पीना-आदि। आरम्भजन्य हिंसा के दोष से बचने के लिए मुनि ऐसे काम न करे। वह शरीर से ममत्व छोड़ चुका है। इसलिए भी मुनि के लिए ये 31] दशवैकालिकसूत्रम् [तृतीयाध्ययनम्