________________ है, उसका नाम शय्यातर है। उसके घर से उस साधु को आहार लेना निषिद्ध है। उस गृहस्थ के चित्त से साधु के प्रति श्रद्धा, भक्ति आदि का व्यवच्छेद न हो जाए, इसलिए श्री तीर्थंकर भगवान् ने ऐसी आज्ञा दी है। 25,26. असन्दकपर्यङ्कनिषद्या- पीढ़ी और खाट आदि पर बैठना। इन जगहों पर बैठने से अप्रमार्जित आदि अनेक दोष साधुओं को लगते हैं / 27. गृहान्तर निषद्या घरों में जाकर बैठना अर्थात् घरों के बीच जाकर बैठना। ऐसा करना साधु को अनेक लाञ्छन लगने का कारण है। इसलिए यह अनाचीर्ण है। 28. गात्रोद्वर्तन- शरीर के मल को हटाने के लिए जो उबटना आदि किया जाता है, वह कामरागोत्तेजक है। इसलिए साधु के लिए यह अनाचरित है। उत्थानिका- फिर पूर्वोक्त विषय में ही कहते हैं:गिहिणो वेयावडियं, जाइय आजीववत्तिया। तत्तानिव्वुडभोइत्तं , आउरस्सरणाणि य // 6 // गृहिणो वैयावृत्यम् , जात्याजीववृत्तिता / तप्तानिवृतभोजित्वम् , आतुरस्मरणानि च // 6 // पदार्थान्वयः-गिहिणो-गृहस्थ की वेयावडियं-वैयावृत्त्य करना जाइय-जाति से आजीववत्तिया-अपनी जाति आदि बतला कर आहारादि लेना तत्तानिव्वुड-भोइत्तं-मिश्रित जलादि का पान करना अर्थात् जो सर्व प्रकार से प्रासुक नहीं हुए ऐसे पदार्थों का भोजन करना य-तथा आउरस्सरणाणि-क्षुधादि पीड़ाओं से पीड़ित होकर पूर्वोपभुक्त पदार्थों का स्मरण करना। मूलार्थ-२९ गृहस्थ की वैयावृत्य करना, 30 जाति-कुल-गणादि बतलाकर अपनी आजीविका करना, 31 जो पदार्थ सब प्रकार से प्रासुक नहीं हुए उनका भोजन करना, 32 भूख आदि से पीड़ित होकर फिर पूर्वभुक्त पदार्थों का स्मरण करना, ये सब साधु के लिए अनाचरित हैं। . टीका-२९. गृहि-वैयावृत्य-साधु पूर्णरूप से निश्चय रत्नत्रय के आराधक, महाव्रत के पालक, साक्षात् मोक्ष-मार्ग के पथिक और अहर्निश धर्मध्यानी आत्मावलोकी होते हैं। उन्हें सांसारिक कर्मों के करने की बिल्कुल फुरसत नहीं है। रूचि भी नहीं है, क्योंकि वे उसको त्याग चुके हैं। भगवान् की आज्ञा भी नहीं है। कोई साधु यदि बीमारी आदि से पीड़ित हो जाए तो दूसरे साधु को उसकी वैयावृत्य करनी चाहिए, क्योंकि वह स्वस्थ होकर पुनः साक्षात् मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त होगा। गृहस्थ स्वस्थ होकर भी संसार के ही काम में फँसेगा। इस लिए मुनि को गृहस्थ की वैयावृत्य नहीं करनी चाहिए। जैसे कि गृहस्थ को दूसरे के घर से आहार आदि लाकर देना। ऐसा करने से समाचारी का विरोध होता है और समाचारी का विरोध होने से असंयमरूप प्रवृत्ति होती है।३०. आजीववृत्तिता- अपनी जाति, कुल, गण, शैय्यादि दिखलाकर आजीविका करना मुनि के लिए निषिद्ध है। ऐसा करने से उसका जीवन संयम-जीवन-धर्मजीवन न रहकर गृहस्थ-जीवन बन जाता है।३१. तप्तानिवृतभोजित्व-सचित्त-अचित्त मिश्रित आहार-पानी का ग्रहण करना तथा अन्य वस्तुएं भी, जब तक कि वे पूर्णरूप से प्रासुक नहीं हुई हैं, ग्रहण करना, मुनि के लिए निषिद्ध हैं, क्योंकि वे सचित्त के त्यागी हैं। 32. आतुरस्मरणक्षुधादि से पीड़ित हो जाने पर पूर्व में भोगे हुए भोज्य पदार्थों का स्मरण करना। ऐसा करने से 29] दशवैकालिकसूत्रम् [तृतीयाध्ययनम्