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________________ पाए-पैरों में पाहणा-जूता आदि पहनना च-और जोइणो-अग्नि का समारंभं-समारम्भ करना। मूलार्थ-१८ जुआ खेलना, 19 नालिका से जुआ खेलना, 20 सिर पर छत्र धारण करना, 21 व्याधि आदि की चिकित्सा करना, 22 पैरों में जूता आदि पहनना, 23 अग्नि का समारम्भ करना, ये सब साधु के लिए अनाचरित हैं। ____टीका- 18, 19.- प्राकृत भाषा के 'अट्ठावए' शब्द के दो अर्थ हैं। एक जुआ खेलना और दूसरा धन के लिए निमित्तज्ञानादि का सीखना। यहाँ ये दोनों ही अर्थ ग्राह्य हैंदोनों ही साधु के लिए अनाचीर्ण हैं / यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि 'अट्ठावए' शब्द का अर्थ भी जुआ खेलना है और 'नालीए' शब्द का भी वही अर्थ है, तो गाथा में एकार्थक दो शब्द क्यों दिए ? इसका समाधान यह है कि 'अट्ठावए' सामान्य जुए का बोधक है और 'नालीए' पासों के द्वारा जुआ खेलने और ताश-शतरंज आदि का बोधक है। इस तरह 'अट्ठावए' सामान्य द्यूत बोधक और नालीए' विशेष द्यूत बोधक है। 20. छत्रधारण-छाता साधु न स्वयं के लगाए और न दूसरे के। यह कार्य साधु वृत्ति के लिए अयोग्य है / यहाँ एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि ये सब अनाचीर्ण यहाँ उत्सर्ग मार्ग से बतलाए गए हैं। अपवाद मार्ग से वृद्ध व ग्लान साधु को छत्र लगाने के लिए आज्ञा है। प्राकृत-भाषा के नियमानुसार 'धारणाए' में अनुस्वार, नकार और अकार का लोप मानकर उसकी छाया 'धारणानर्थाय' भी की जा सकती है। वृद्धपरम्परा से ऐसा सुनते चले आते हैं। 21. चैकित्स्य-मुनि दो तरह के होते हैं। एक स्थविर-कल्पी और दूसरे जिन-कल्पी। उनमें से स्थविर-कल्पी के लिए सिर्फ सावध औषधि का निषेध है। जिन-कल्पी के लिए क्या सावध और क्या निरवद्य सभी प्रकार की औषधियों का निषेध है। लेकिन बलकारक औषधियों का निषेध स्थविर-कल्पी मुनि के लिए भी है। 22, 23- जूतों का पहनना और अग्नि का जलाना-सावध कर्म होने के कारण मुनि के लिए ये कर्म सर्वथा निषिद्ध हैं। उत्थानिका-फिर पूर्वोक्त विषय में ही कहते हैं:सिज्जायरपिंडं च, आसंदीपलियंकए / गिहंतरनिसिज्जा य, गायस्सुव्वट्टणाणि य॥५॥ शय्यातरपिण्डश्च , आसन्दीपर्यौ / गृहान्तरनिषद्या च, गात्रस्योद्वर्त्तनानि / च॥५॥ पदार्थान्वयः- सिज्जायरपिंडं-शय्यातर के घर से आहार लेना च-और आसंदीपलियंकए-आसंदी और पर्यंक पर बैठना य-तथा गिहंतरनिसिजा-गृहस्थ के घर जाकर बैठना य-च शब्द से पीठकादि पर बैठना गायस्सव्वडणाणि-शरीर का मल दर करने के लिए उबटन आदि करना (य-च शब्द से यहाँ देह के अन्य संस्कारों को भी ग्रहण करना चाहिए)। मूलार्थ- 24 शय्यातर के घर से आहार लेना, 25 आसंदी पर बैठना, 26 पर्यंक पर बैठना, 27 गृहस्थ के घर जाकर बैठना, 28 गात्र की उद्वर्त्तन-क्रियाएँ करना आदि, ये सब साधु के लिए अनाचरित हैं। टीका-२४. शय्यातरपिण्ड-'शय्या-वसतिः, तया तरति संसारमिति शय्यातरः।' अर्थात् साधु को ठहरने के लिए स्थान देकर जो गृहस्थ संसार से पार उतरने.का साधन करता तृतीयाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [28
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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