________________ संबाहणा-संबाधन-मर्दन करना य-और दंतपहोयणा-दन्त-प्रधावन करना संपुच्छणा-गृहस्थ से सावद्यादि प्रश्न तथा मैं कैसा लगता हूँ इत्यादि पूछना य-और देहपलोयणा-आदर्शादि में अपनी देह का अवलोकन करना। मूलार्थ-१० घृत-गुड़ादि का संचय करना, 11 गृहस्थी के पात्र में भोजन करना, 12 राजा का आहार लेना, 13. दानशाला से दान लेना, 14 मर्दन करनाकराना, 15 दाँत माँजना, 16 गृहस्थ से क्षेम-कुशल पूछना, 17 अपने शरीर के प्रतिबिम्ब को आदर्शादि में देखना, ये सब साधु के लिए अनाचरित है। टीका- 10. संनिधि- घृत-गुड़ादि का संग्रह रखना, मुनि की अतिगृद्ध और परिग्रह के प्रति ममत्व का सूचक है। 11. गृहिपात्र-गृहस्थी के यहाँ पात्र प्रायः धातु के होते हैं। मुनि को धातुमात्र का ग्रहण वर्जित है। 12. राजपिण्ड- अनेक राजा अव्रती भी होते हैं। उनके यहाँ भक्ष्याभक्ष्य का विवेक प्रायः नहीं होता। दूसरे, राजाओं के यहाँ प्रायः बलयुक्त भोजन बना करता है। मुनि संयम-मार्ग के पथिक हैं। अतः उन्हें ऐसा आहार लेना उनके पथभ्रष्ट होने का कारण है। 13. किमिच्छक- जिन शालाओं में , तुम कौन हो? क्या चाहते हो ? इत्यादि प्रश्न पूछे जाते हैं, वे किमिच्छक दानशालाएँ कहलाती हैं। ऐसी शालाओं से कोई भी चीज मुनि को नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि एक तो वह उनके निमित्त तैयार की गई' मानी जाती है। दूसरे, मुनि को दान लेते समय जिन-जिन दोषों के टालने की शास्त्र में आज्ञा है, उनके टलने की वहाँ संभावना नहीं है। 14. संबाधन- शरीर का दाबना या दबवाना, ये दोनों ही काम, काम-राग वर्धक हैं। 15. दन्तप्रधावन- दाँत माँजना या दन्त मञ्जन लगाना, यह मुनि की सौन्दर्य भावना का द्योतक है। 16. संप्रश्र-गृहस्थी, गृहस्थी से जैसे कुशल-क्षेम के प्रश्न पूछा करते हैं, वैसे साधु को नहीं पूछने चाहिए, क्योंकि उत्तर में गृहस्थी से जो कुछ कहा जाएगा, उसमें सत्यासत्य के सूक्ष्म विवेचन के अनुसार कुछ-न-कुछ असत्यांश भी हुए बिना न रहेगा। इस तरह मुनि का वाक्य असत्योत्तेजक हो जाता है। मुनि के असत्य का त्याग कृत-कारितअनुमोदना से अर्थात् महाव्रतरूप से होता है, अणुव्रतरूप से नहीं। दूसरे, उनका पूछना निरर्थक भी है, क्योंकि जो कुछ तकलीफ या आराम गृहस्थ को प्राप्त है, वह मुनि के पूछने से कुछ बदल नहीं सकते और न वे दुःख निवारण का कुछ उपाय ही बतला सकते हैं, क्योंकि जो वे बाह्य उपाय बतलाएँगे, वह सब सावद्य-जन्य होगा, रहा धर्मोपदेश; वह तो वे देते ही हैं। 17. देह-प्रलोकन-शरीर-सौन्दर्य का अभिलाषी ही प्रायः शरीर को दर्पण में देखेगा। मुनि शरीरसौन्दर्य के त्यागी होते हैं। वे तो आत्म-निर्मलता के योगी होते हैं। उत्थानिका- उसी विषय में और भी कहते हैं:अट्ठावए य नालीए, छत्तस्स य धारणट्ठाए। तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोइणो॥४॥ अष्टापदं च नालिका, छत्रस्य च धारणमनर्थाय। चैकित्स्यमुपानही पादयोः, समारम्भश्च ज्योतिषः॥४॥ पदार्थान्वयः- अट्ठावए-जुआ खेलना य-पुनः नालीए-नालिका से जुआ खेलना च-तथा छत्तस्स-छत्र का धारणट्ठाए-धारण करना अनर्थ के लिए है तेगिच्छं-चिकित्सा करना 27] दशवैकालिकसूत्रम् [तृतीयाध्ययनम्