________________ बिना नहीं हो सकता। आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ जहाँ होता है, वहाँ हिंसा का. होना स्वाभाविक है। साधु को निमित्त रख कर यदि भोजन तैयार कराया जाए और उसका पता उस साधु को लग जाए और फिर उस आहार को वह साधु ग्रहण कर ले तो उस भोजन के बनने में आरम्भादिजन्य जो हिंसा हुई थी, उसका वह भागी अवश्य होगा, क्योंकि साधु की उसमें अनुमोदना हो गई। न मालूम हो और वह उस आहार को ले ले तो उसमें वह पाप का भागी नहीं है। 2. क्रीतकृत-साधु स्वयं कहीं से भी कोई चीज़ खरीदे नहीं, खरीदवाए नहीं और साधु के निमित्त बाजार से खरीदी हुई मिठाई आदि यदि कोई आहार में दे तो उसे भी न ले। 3. नियोगिक- कोई गृहस्थ यदि किसी साधु को न्यौता दे दे कि 'आप मेरे गृह से नित्य आहार ले जाया कीजिए।' तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से साधु के चित्त में अन्य लोगों के प्रति जिनके यहाँ से उसे निमन्त्रण नहीं मिला है, घृणा का भाव पैदा हो सकता है, उनकी निन्दा करने का भी विचार साधु के चित्त में आ सकता है और राग-द्वेष का अविनाभावी सम्बन्ध भी है। अर्थात् जब एक के प्रति द्वेष हो गया तो दूसरे के प्रति राग हो जाना स्वाभाविक है। इस लिए निमन्त्रण देने वाले लोगों से उसका राग-भाव भी हो सकता है और उनकी प्रशंसा करने का भी उसका विचार हो सकता है। 'नियोगिक' का एक अर्थ यह है कि जो आहार ब्राह्मण आदि किसी के लिए अलग निकालकर रख दिया हो तो उसे भी साध ग्रहण न करे, क्योंकि वह दूसरे के हिस्से की चीज़ हो गई। 4. अभ्याहृत- यदि कोई किसी दूसरे के घर से अथवा किसी दूसरे ग्राम से आहार को लाकर साधु को दे तो उसे भी साधु ग्रहण न करे। 'अभ्याहृत' के लिए गाथा में जो 'अभिहडाणि' बहुवचन-पद दिया है, वह गाँव, नगर, पत्तन, देश प्रान्त आदि अनेक भेदों को प्रदर्शन करने के लिए दिया है। 5. रात्रिभोजन- इसमें जो दोष-बाहुल्य है, वह तो संसार भर में प्रसिद्ध है। इसमें इतनी दौष-बहुलता है कि वह श्रावकों तक को निषिद्ध है, तो फिर साधुओं का कहना ही क्या? वह तो एकदम सर्वथा त्याज्य है। जैनेतर शास्त्रों तक में उसका पर्याप्त निषेध है। यहाँ तक लिखा है कि-'रात्रि के समय भोजन गोमांस के समान और जल रुधिर के बराबर है।' 6. स्नान- शुचिमात्र को छोड़कर और सब प्रकार के स्नान-देश-स्नान व सर्व-स्नान त्याज्य है। स्नान शरीरालंकार है और काम-राग का वर्धक है। साधु के लिए राग-वर्धक पदार्थ व क्रियाएँ सब हेय हैं। 7. गन्ध- इत्र- फुलेलादि का लगाना भी साधु के लिए अयोग्य है। ये भी राग-वर्धक हैं। 8. माला- सचित्त और रागवर्धक होने के कारण पुष्प व माला भी वर्ण्य है। 9. बीजना- पंखा आदि से हवा करने में वायुकायिक जीवों का विघात होता है, अतः वे भी साधु के लिए त्याज्य हैं। उत्थानिका- उसी विषय में फिर कहते हैं:संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए। संबाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणा य॥३॥ सन्निधिः गृह्यमत्रं च, राजपिण्डः किमिच्छकः। सम्बाधनं दन्तप्रधावनं च, सम्प्रश्नः देहप्रलोकनं च॥३॥ . ___ पदार्थान्वयः-संनिही-वस्तुओं का संचय करना य-और गिहिमत्ते-गृहस्थी के पात्र में भोजन करना रायपिंडे-राज-पिंड का ग्रहण करना किमिच्छए-दान देने वाली शाला से दान लेना तृतीयाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [26