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________________ रहित हो सकेगा। जो सांसारिक बन्धन-रहित अर्थात् बाह्याभ्यन्तर परिग्रह-रहित होगा, वही स्व-पर का रक्षक हो सकेगा और जो स्व-पर का रक्षक होगा, वही महर्षि हो सकेगा। आत्माएँ तीन प्रकार की होती हैं। स्व-रक्षक, पर-रक्षक और स्वपर-रक्षक। इस प्रकरण में 'रक्षक' शब्द का अर्थ मरने से या तकलीफ से बचाना ही नहीं है, बल्कि क्रोध, मान, माया, लोभ, दुर्व्यसन, अपवित्र भावना आदि जीव के अन्तरंग शत्रओं के आक्रमण से भी बचाना है। इस प्रकार की अपनी रक्षा करने में जो मुनि तन्मय हैं, वे स्व-रक्षक हैं; दूसरे की आत्मा की रक्षा करने में जो संलग्न हैं, वे पर-रक्षक हैं और जो अपनी और साथ ही दूसरे की भी रक्षा करने में समर्थ हैं अर्थात् अपनी आत्मा के कल्याण के साथ-साथ पराई आत्माओं का भी जो कल्याण कर सकते हैं, वे ही 'महर्षि' कहलाते हैं। इस अध्ययन की वक्ष्यमाण बातें महर्षियों के लिए अयोग्य इसलिए हैं, क्योंकि वे इनके संयम में बाधा पहुँचाती हैं। महर्षि अहोरात्र ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार में ही लीन रहते हैं। उनके लिए स्त्री-कथा, देश-कथा, भक्त-कथा और राज्यकथा तथा मोह-कथा, विप्रलाप-कथा और मृदुकारुणिक कथा आदि विकथाएँ हैं। महर्षि हमेशां धर्म-कथा में तत्पर रहते हैं / यद्यपि धर्म-कथा के अनेक भेद हैं, पर उन सब का मुख्य उद्देश्य आत्मा को निर्मल करना- आत्मा को निज स्वरूप में लीन करना- और अन्य भव्य जीवों को तन्मय करके उनका उद्धार करना- उनको आत्मा की ओर लगाना- है। श्रुतज्ञान के प्रभाव से आत्मा स्व-पर के कल्याण करने में समर्थ हो जाती है। उत्थानिका- अब अनाचीर्ण क्रियाओं का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं:उद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य। राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे॥२॥ औद्देशिकं क्रीतकृतं, नियोगिकमभ्याहृतानि च। रात्रिभक्तं स्नानं च, गन्धमाल्ये च वीजनम्॥२॥ ___पदार्थान्वयः- उद्देसियं-साधु के उद्देश्य से बनाए गए आहार को लेना कीयगडंखरीदकर लेना नियागं-आमंत्रित घर से आहार लेना य-और अभिहडाणि-स्व-ग्रामादि से साधु के वास्ते लाकर पदार्थ साधु को देना राइभत्ते-रात्रि-भोजन करना य-और सिणाणे-स्नान करना गंध-सुगंध का लेना मल्ले-पुष्पमालादि धारण करना य-और वीयणे-बीजना-पंखादि करना। ... मूलार्थ-१ औद्देशिक आहारादिलेना, 2 खरीद कर लेना, 3 आमंत्रित आहारादि ग्रहण करना, 4 गृहादि से लाया हुआ भोजनादि लेना, 5 रात्रि-भोजन करना, 6 स्नान करना, 7 सुगंधित पदार्थों का सेवन करना, 8 पुष्पमालादि का धारण करना, 9 बीजनादि करना, ये सब मुनि के लिए अनाचीर्ण हैं। टीका- इस गाथा में साधु के अनाचीर्ण पदार्थों का वर्णन किया गया है; अर्थात् जोजो पदार्थ मुनि-वृत्ति के सेवन करने के योग्य नहीं है, उन पदार्थों का वर्णन किया गया है। जिन पदार्थों का नाम लिया गया है वे दिग्दर्शनमात्र हैं। उपलक्षण से तत्सदृश अन्य पदार्थ भी ग्रहण किए जा सकते हैं। . 1. औद्देशिक- कोई भी काम किया जाए- आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ के 25] दशवैकालिकसूत्रम् [तृतीयाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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