________________ अह खुड्डयायारकहा तइयं अज्झयणं . अथ क्षुल्लकाचारकथा तृतीयमध्ययनम् गत अध्ययन में मोहनीयकर्म-जन्य संकल्प-विकल्पों को छोड़कर चित्त स्थिर करना चाहिए अर्थात् मनुष्य को धैर्यावलम्बी बनना चाहिए। धैर्य धारण किए बिना चारित्र की पालना नहीं हो सकती। बिना चारित्र के पाले मोक्ष नहीं हो सकता। धैर्य आचार के विषय में प्रयुक्त करना चाहिए। तभी जीव की सुगति हो सकती है। अनाचार के विषय में प्रयुक्त किया गया धैर्य दुर्गति का कारण होता है। क्षुल्लकाचारकथा' नाम में जो 'क्षुल्लक' शब्द आया है, उसका अर्थ 'अल्प' होता है। अल्प' हमेशा 'महत्' की अपेक्षा रखता है। हालाँकि वह अल्पतामहत्ता द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अलग-अलग होती है। अस्तु। इस अध्ययन में प्रधान चारित्र की अपेक्षा संक्षेप से कथन किया जाएगा।अत एव इस अध्ययन का नाम क्षुल्लकाचारकथा' है। साधुओं का संक्षेप से चारित्र वर्णन करने वाले क्षुल्लकाचारकथा' नामक इस तीसरे अध्ययन में प्रथम अनाचार का वर्णन सूत्रकार करते हैं: संजमे सुट्ठिअप्पाणं, विप्पमुक्काण ताइणं। तेसिमेयमणाइण्णं , निग्गंथाण महेसिणं॥१॥ संयमे सुस्थितात्मनाम् , विप्रमुक्तानां त्रायिणाम्। तेषामेतदनाचरितम् , निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम्॥१॥ __ पदार्थान्वयः-संजमे-संयम में सुट्ठिअप्पाणं-भली प्रकार से स्थित विप्पमुक्काणसंपूर्ण सांसारिक बन्धन-रहित ताइणं-षट्काय की व अपनी आत्मा की रक्षा करने वाले निग्गंथाणपरिग्रह-रहित तेसिं-उन महेसिणं-महर्षियों के एयं-ये- वक्ष्यमाण अणाइण्णं-अनाचीर्ण हैं। मूलार्थ-संयम में स्थित, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह-रहित, स्वपर-रक्षक, निर्ग्रन्थ महर्षियों के अयोग्य आचार अब वर्णन किए जाएंगे। टीका- इस गाथा में निर्ग्रन्थ मुनि के जो विशेषणपद दिए गए हैं, वे सब हेतुहेतुमद्भावपूर्वक हैं। यदि पढ़ेगा तो विद्वान् हो जाएगा, यदि वर्षा अच्छी होगी तो संवत् हो जाएगा', यही हेतुहेतुमद्भाव का उदाहरण है। इसी तरह उपरोक्त गाथा-प्रतिपादित निर्ग्रन्थ मुनि के विशेषण-पदों का अर्थ करना चाहिए। यथा निर्ग्रन्थ मुनि यदि भलीभाँति संयम में स्थित होगा, तभी वह संपूर्ण सांसारिक बन्धन