________________ निकलता है कि जो इन तीनों को धारण करता है, वही पुरुषोत्तम है। एक शंका यहाँ और हो सकती है और वह यह कि जब श्री राजीमती का नग्नावस्था में दर्शन पाकर श्री रथनेमि का चित्त चलायमान-चंचल- हो गया, तो गाथा में उसे 'पुरुषोत्तम' क्यों कहा गया? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि उसके भाव डगमगा गए थे, लेकिन फिर भी श्री राजीमती के शिक्षोपदेश से वह कुपथ से हट गया और प्रायश्चित्तपूर्वक अपने व्रत में दृढ़ हो गया। सर्वोत्तम तो वही है, जो चाहे जैसी गिराने वाली परिस्थिति के उपस्थित हो जाने पर भी न गिरे, किन्तु वह भी पुरुषोत्तम ही है, जो कि परिस्थिति के हिलाए हिल जाने पर भी सोचसमझकर अपने क्रियाचरणरुप व्रत से गिरे नहीं-अटल बना रहे। यह भी शूर-वीर पुरुषों का लक्षण है। विषय-सेवन के त्याग का जो उपदेश दिया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि कामभोगों के जनक आत्मा के साथ अनादिकाल से संबद्ध एक मोहनीय कर्म है, जो कि नितान्त दुख:दायी है। उसके अभाव से अत्यन्त निराबाध सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए सारांश यह निकला कि यदि पूर्व कर्मोदय के कारण कदाचित् किसी को विषय-सेवन के संकल्प-विकल्प उत्पन्न भी हो जाएँ, तब भी उसका भला इसी में है कि वह सदुपदेश, शुभ भावनाओं का स्मरण करके उनसे अलग रहे-उनमें लिप्त न हो। इसी में उसके रत्नत्रय की स्थिति है। इसी से वह पुरुषोत्तम है। इसी तरह से वह मोक्ष की साधना कर सकता अध्याय की समाप्ति पर 'त्ति बेमि' शब्द का यहाँ पर भी पूर्व की भाँति यही अर्थ लगाना चाहिए कि 'श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे शिष्य ! श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामी के मुखारबिन्द से मैंने जैसा अर्थ इस अध्ययन का सुना है, वैसा ही मैंने तुम से कहा है। अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा।' श्रामण्यपूर्विकाध्ययन समाप्त। 23 ] दशवैकालिकसूत्रम [द्वितीयाध्ययनम्