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________________ संपडिवाइओ-स्थिर हो गया। मूलार्थ- वह रथनेमि उस आर्या श्री राजीमती के सन्दर वचनों को सनकर, जिस प्रकार अंकुश से हाथी वश में हो जाता है, उसी प्रकार धर्म में स्थिर हो गया। टीका- इस गाथा में उपदेश की सफलता दृष्टान्तपूर्वक दिखलाई गई है। स्वयं आचरण पर दृढ़ एक स्त्री के वचनों की सफलता इस बात को सिद्ध करती है कि चारित्र-संपन्न आत्मा का प्रभाव अवश्य होता है। श्री रथनेमि का एक स्त्री की बात को स्वीकर करना इस बात को सिद्ध करता है कि कुलीन वंशज पुरुष शिक्षा से ही मान जाते हैं। हाथी का उदाहरण एक वंशज पुरुष के लिए सर्वथा उपयुक्त है। वह स्वभाव से ही धैर्यशाली होता है। धैर्यशाली व्यक्ति को थोड़ा-सा इशारा ही पर्याप्त होता है। उत्थानिका- अब उक्त विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं:एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। विणियटुंति भोगेसु , जहा से पुरिसुत्तमो॥११॥ त्ति बेमि। . विइयं सामण्णपुब्वियज्झयणं सम्मत्तं। एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः, पण्डिताः प्रविचक्षणाः। विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः, यथाऽसौ पुरुषोत्तमः॥११॥ ___ इति ब्रवीमि। द्वितीयं श्रामण्यपूर्विकाध्ययनं समाप्तम्। . __ पदार्थान्वयः-संबुद्धा-तत्त्व के जानने वाले पवियक्खणा-सावद्य कर्म से भय मानने वाले पुरुष पंडिया-पण्डित-दोषज्ञ-विषय-सेवन के दोषों को जानने वाले एवं-पूर्वोक्त प्रकार से करंति-करते हैं अर्थात् वे भोगेसु-भोगों से विणियटुंति-निवृत्त हो जाते हैं जहा-जिस प्रकार पुरिसुत्तमो-पुरुषों में उत्तम से-वह रथनेमि। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ- तत्त्व के जानने वाले प्रविचक्षणः पण्डित, उसी प्रकार भोगों से विरक्त हो जाते हैं, जिस प्रकार कि पुरुषोत्तम श्री रथनेमि। ____टीका-इस गाथा में चल रहे विषय का उपसंहार करते हुए उपदेश भी दिया गया है, क्योंकि इस द्वितीयाध्ययन की यह अन्तिम गाथा है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि गाथा में 'संबुद्धा', 'पंडिया' और 'पवियक्खणा',ये एकार्थ-वाचक तीन शब्द क्यों दिए ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि स्थूल दृष्टि से ये एकार्थवाचक ही हैं, फिर भी सूक्ष्म विचार से इनके अर्थों में अन्तर हैं। यथा सम्यक्-दर्शन की प्रधानता से आत्मा 'संबद्ध' कहलाती है : सम्यक-ज्ञान की प्रधानता से आत्मा 'पण्डित' कहलाती है और चरित्र की प्रधानता से आत्मा 'प्रविचक्षण' कहलाती है। इस तरह से गाथा में शास्त्रकार ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप तीनों रत्नों का वर्णन कर दिया है। जिसका तात्पर्य यह द्वितीयाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 22
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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