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________________ गाथा का 'निहुओ'-"निभृतः' पद यह सूचित करता है कि सर्व-दुःख-निवारक संयम के विधि-विधान या क्रिया-कलाप को वही जीव पालन कर सकता है, जिसका चित्त विक्षिप्त न हो। विक्षिप्त चित्त वाला पुरुष धैर्यच्युत हो जाता है और संयम की विराधना कर बैठता है। . उत्थानिका-अब सूत्रकार धैर्यगुण के न होने से जिस दशा के हो जाने की संभावना की जा सकती है, उसी विषय में कहते हैं:जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ। वायाविद्ध व्व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि॥९॥ यदि त्वं करिष्यसि भावम् , या या द्रक्ष्यसि नारीः। वाताविद्ध इव हड़ः, अस्थितात्मा भविष्यसि॥९॥ पदार्थान्वयः-तं-तू जा जा-जिन-जिन नारीओ-नारियों को दिच्छसि- देखेगा भावंविषय के भाव को जइ-यदि काहिसि-करेगा, तो वायाविद्ध-वायु से प्रेरित हडो व्व- अवद्धमूल हड वनस्पति की तरह अट्टिअप्पा-अस्थिरात्मा भविस्ससि-हो जाएगा। मूलार्थ हे रथनेमि ! तू जिन-जिन स्त्रियों को देखेगा; फिर यदि उनमें विषय के भाव करेगा, तो तू वायु से प्रेरित अबद्धमूल हड़ वनस्पति के समान अस्थिर आत्मा वाला हो जाएगा। टीका-ध्यान का लक्षण है-“एकाग्रचिन्ताचित्तनिरोधो ध्यानम्' -एक पदार्थ की ओर चित्त का लगाना-मन का एकाग्र करना। विषयों की ओर जब मन आकृष्ट होता है, तब वह एकाग्रता से हट जाता है और चंचल हो जाता है। यों तो संसार के जितने पदार्थ हैं, वे सभी मन की चंचलता को बढ़ाने वाले हैं; परन्तु उन सब में स्त्री बड़ी प्रबल है। इसका संसर्ग होते ही मन की एकाग्रता एकदम काफूर हो जाती है। 'कोई स्त्री सुन्दर है तो उस ओर अनुराग और कोई असुन्दर है तो उस ओर अरूचि, बस यही तो चंचलता है। ऐसे चंचल पुरुष की हालत, आँधी के प्रबल झोकों से उखड़े हुए वृक्ष के समान है। वह शीघ्र ही गिर जाता है। गाथा में आए हुए 'हडो' शब्द का अर्थ 'अबद्धमूलो वनस्पतिविशेषः' है और 'व्व' का अर्थ 'इव' है। उत्थानिका- इस उपदेश के बाद क्या हुआ? वह सूत्रकार कहते हैं:तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाइ सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ॥१०॥ तस्या असौ वचनं श्रुत्वा, संयतायाः सुभाषितम्। अङ्कशेन यथा नागः धर्मे सम्प्रतिपातितः॥१०॥ पदार्थान्वयः-सो-वह तीसे-उस संजयाइ-संयमिनी के सुभासियं-सुंदर वयणंवचन को सोच्चा-सुनकर अंकुसेण-अंकुश से नागो-हाथी की जहा-तरह धम्मे-धर्म में 21 ] दशवैकालिकसूत्रम [द्वितीयाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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