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________________ से मनुष्य, काम को जीत सकता है और सुखी हो सकता है। ___ यहाँ पर 'आतपन तप' उपलक्षण है। वास्तव में ऊनोदरी आदि बारह प्रकार के तप काम के जीतने में सहायता पहुँचाते हैं। शरीर की सुकुमारता भी काम की वृद्धि करती है, अत: उसको भी छोड़ना चाहिए। गाथा में आए हुए 'संपराए' शब्द का अर्थ कोई-कोई ‘परीषहोपसर्गसंग्राम' भी करते हैं। वह भी ठीक है, क्योंकि जो काम को जीत सकेगा, वही पुरूष परीषह और उपसर्गों को आसानी से जीत सकता है। __ यहाँ पर ‘खु' शब्द अवधारण अर्थ में आया हुआ है। जिसका तात्पर्य यह है कि निश्चय से यावन्मात्र दुःखों का कारण एक 'काम' ही है। उत्थानिका-फिर संयम-साधना से मन विचलित न हो जाए , इसके लिए मुनि इस प्रकार की विचारणा करे। जैसे कि:पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं। नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे॥६॥ प्रस्कन्दन्ति ज्वलितं ज्योतिषम्, धूमकेतुं दुरासदम्। नेच्छन्ति वान्तं भोक्तुम् , कुले जाता अगन्धने॥६॥ पदार्थान्वयः-अगंधणे-अगंधन नामक कुले-कुल में जाया-उत्पन्न हुए सर्प दुरासदंदुष्कर से जो सहन की जाए इस प्रकार की जलियं-ज्वलित जोइं- ज्योति धूमकेउं-धूम है केतुध्वजा-जिसकी अर्थात् अग्नि, उसमें पक्खंदे-गिर जाते हैं, परन्तु वंतयं-वमन किए हुए विष के भोत्तुं-भोगने के लिए अर्थात् वान्त विष को पीना नेच्छंति नहीं चाहते। मूलार्थ-अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प, जिसके पास तक जाना भी कठिन हो और धूएँ के गुब्बारे जिसमें उठ रहे हों, ऐसी जाज्वल्यमान प्रचण्ड अग्नि में गिरने की तो इच्छा कर लेते हैं, परन्तु वमन किए हुए विष को पीने की इच्छा नहीं करते। टीका-सों की दो जातियाँ हैं:- 1. गन्धन और 2. अगन्धन। इनमें से 'अगन्धन' नाम के सर्प की यह आदत होती है कि वह जिसे काट खाए; उसका विष फिर नहीं चूसता। भले ही उसे प्रचण्ड अग्नि में जलना पड़े। ' एक अशिक्षित तिर्यंच की जब इतनी प्रबल दृढ़ता होती है तो फिर विवेकी पुरूषों के लिए क्या कहा जाए ! अर्थात् व्रत स्वीकार कर लेने के बाद स्त्री आदि भोगोपभोगों का त्याग कर देने के बाद-उसे फिर कभी ग्रहण न करना चाहिए। कर्मोदय की विचित्रता से यदि कभी मन चलायमान भी हो जाए तो उसे धैर्यपूर्वक सँभालना चाहिए। इस द्वितीय अध्ययन की 7 वीं, 8 वी आदि गाथाओं में शास्त्रकार ने श्री राजीमती के उपालम्भपूर्वक इस विषय का निदर्शन किया है। अतः उस कथा का पूर्वरूप यहाँ लिख देना अच्छा होगा: सोरठ देश में 'द्वारिका' नाम की एक नगरी थी। विस्तार में वह बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी थी। उस समय नौवें वासुदेव श्रीकृष्ण महाराज राज्य करते थे। उनके पिता के एक श्री समुद्रविजय भाई थे। इनकी शिवा नाम की रानी से भगवान् श्री अरिष्टनेमि जन्मे। द्वितीयाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [18
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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