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________________ युवा हुए। उग्रसेन राजा की पुत्री राजीमती से उनका विवाह होना तय हुआ। धूम-धाम के साथ जब वे बरात लेकर जा रहे थे तो उन्होंने जूनागढ़ के पास बहुत से पशुओं को बाड़े और पिंजरों में बन्द हुआ देखा। श्री अरिष्टनेमि ने जानते हुए भी जनता को बोध कराने के लिए सारथी से पूछा-ये पशु यहाँ किस लिए बँधे हुए हैं? सारथी ने कहा, हे भगवन् ! ये पशु आपके विवाह में साथ आए हुए मांसाहारी बरातियों के भोजनार्थ यहाँ लाए गए हैं। यह सुनते ही भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी का चित्त बड़ा उदासीन हुआ। आपने विचार किया कि मेरे विवाह के लिए इतने पशुओं का वध कराना मुझे इष्ट नहीं है। इस पाप के बदले न जाने मुझे कितने जन्म धारणकर कष्ट उठाना पड़ेगा। इस तरह विचार करने पर उनके चित्त की वृत्ति विवाह करने से ही हट गई। तब सारथी को सम्पूर्ण भूषण उतारकर प्रीति-दान में दिए और आप उन पशुओं को बन्धनों से छुड़ाकर विवाह न कराते हुए अपने घर को वापिस चले आए। एक वर्ष पर्यन्त आपने करोड़ों सुवर्ण-मुद्राओं का दान देकर एक सहस्र पुरूषों के साथ आपने साधु-वृत्ति ग्रहण की। तदनन्तर वे विदुषी श्री राजीमती कन्या भी अपने अविवाहित पति के वियोग के कारण वैराग्य-भाव को धारणकर सात सौ सखियों के साथ स्वयमेव दीक्षित हो गई और भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी के दर्शनार्थ रेवती पर्वत पर जहाँ कि वे तपश्चर्या कर रहे थे, चलीं। अकस्मात् रास्ते में अति वायु और वृष्टि होने के कारण सब सखियाँ तितर-बितर हो गई। श्री राजीमती ने वायु-वर्षा की घर कारण एक एक गफा में प्रवेश किया। वहाँ जाकर उन्होंने निर्जन स्थान जान वर्षा से भीगें अपने सारे वस्त्र उतारकर भूमि पर रन दिए। वहाँ श्री अरिष्टनेमि के छोटे भाई श्री रथनेमि पहले से ही समाधि लगाकर खड़े थे। बिजली की चमक में नग्न श्री राजीमती पर श्री रथनेमि की दृष्टि पड़ी। देखते ही श्री रथनेमि का चित्त काम-भोगों की ओर आकर्षित हो गया और श्री राजीमती से प्रार्थना करने लगे। इस पर विदुषी श्री राजीमती ने श्री रथनेमि को समझाया कि देखो, अगन्धन जाति का सर्प एक पशु होता हुआ भी अपनी जातीय हठ से जाज्वल्यमान और दुरापद अग्नि में कूद तो पड़ता है, पर वह यह इच्छा नहीं करता कि मैं वमन किए हुए विष को फिर से अंगीकार कर लूँ। परन्तु अफसोस है कि तुम जहर की तरह विषय-भोगों को समझ कर त्याग चुके हो, फिर भी उसे अंगीकार करना चाहते हो। . * उत्थानिका- इस विषय का उपदेश कर अब श्री राजीमती आक्षेपपूर्वक उपदेश करती हुई कहती हैं कि: धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे॥७॥ धिगस्तु तेऽ यशस्कामिन्! यस्त्वं जीवितकारणात्। वान्तमिच्छस्यापातुम् , श्रेयस्ते मरणं भवेत्॥७॥ पदार्थान्वयः-अजसोकामी-हे अयश की कामना करने वाले ! ते-तुझे धिरत्थुधिक्कार हो जो-जो तं-तू जीवियकारणा-असंयम रूप जीवन के लिए वंतं-वमन को आवेउंपान करने की इच्छसि-इच्छा करता है, अतः ते-तेरे लिए मरणं-मृत्यु सेयं-कल्याण रूप भवे-है। मूलार्थ–रे अपयश चाहने वाले ! तुझे धिक्कार! जो तू अपने असंयम रूप 19 ] दशवैकालिकसूत्रम [द्वितीयाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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