________________ भी हैं, परन्तु किसी समय प्राप्त नहीं होते तो उनको मनुष्य स्वयं ही नहीं भोगता या नहीं भोग सकता। परन्तु जो इन्द्रियों को प्रिय हैं, स्वाधीन हैं और प्राप्त भी हैं, उन्हें जो छोड़ता है- उनसे विमुख रहता है, वास्तव में त्यागी वही है। ऐसा त्याग करना धीर वीर पुरूषों का का गाथा में 'विपिट्ठीकुव्वई' शब्द आ जाने पर भी उसका समानार्थक ही दूसरा जो 'चयइ' पद और दिया है, वह इसलिए कि जब शुभ भावनाओं द्वारा उन काम-भोगों से मन को पीछे कर लिया जाए तो फिर उन काम-भोगों का त्याग ही कर दिया जाए तब तो मनोवृत्ति ठीक रह सकती है, नहीं तो न मालूम किस समय मनोवृत्ति फिर उनकी उस ओर लग जाए, यह सूचित करने के लिए है। __ गाथा में 'य' और 'हु' शब्द अवधारणार्थ में आया हुआ है। उत्थानिका-अब सूत्रकार कहते हैं कि यदि त्यागी पुरूष को कदाचित् राग की संभावना हो जाए तो वह उस काम-राग को अपने मन से किस प्रकार से हटाए:समाइ पेहाइ परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरइ बहिद्धा। न सा महं नो वि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज्ज रागं॥४॥ समया प्रेक्षया परिव्रजतः, स्यात् मनो निःसरति बहिः। न सा मम नाप्यहमपि तस्याः, इत्येवं तस्या विनयेद् रागम्॥४॥ . पदार्थान्वयः-समाइ पेहाइ-समभाव की दृष्टि से परिव्वयंतो-विचरते हुए साधु का मणो-मन सिया-कदाचित् बहिद्धा-बाहर निस्सरइ-निकले तो सां-वह महं-मेरी न-नहीं है तथा नो वि-नहीं अहं पि-मैं भी तीसे-उसका हूँ इच्चेव-इस प्रकार से ताओ-इस स्त्री पर से राग-राग को विणइज-दूर करे। मूलार्थ-समभाव की दृष्टि से विचरते हुए.मुनि का मन कदाचित् संयम रूपी गृह से बाहर निकल जाए तो मुनि, 'वह स्त्री आदि मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ' इस प्रकार की विचारणा से उस स्त्री पर से राग को हटा ले। टीका-इस काव्य में मोह-कर्म के उदय हो जाने पर काम-राग से निवृत्त होने का उपदेश दिया गया है। अपनी आत्मा के समान प्रत्येक जीव को मानते हुए मुनि का मन कदाचित् कर्मोदय से संयम के महापथ से विचलित हो तो मुनि को इस प्रकार की भावना से मन को फिर संयम-मार्ग में ही लाना चाहिए। मुनि यदि भुक्तभोगी होकर दीक्षित हुआ है, तब तो पूर्व विषयों की स्मृति मात्र से मन के विषम हो जाने की संभावना रहती है। यदि अभुक्तभोगीरूप में ही दीक्षित हो गया है, तब काम-राग के उत्पादक ग्रन्थों एवं कथाओं के सुनने से तथा कुतूहलादि द्वितीयाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [16