________________ मूलार्थ-जो पुरूष-वस्त्र, गन्ध, आभूषणों, स्त्रियों तथा शय्याओं आदि को भोगते तो नहीं हैं, लेकिन जिनके उक्त पदार्थ वश में भी नहीं हैं, वे वास्तव में 'त्यागी' नहीं कहे जाते। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया है कि वास्तव में भाव-प्रधान ही संयम-क्रिया मोक्ष-साधक होती है, क्योंकि जिसने द्रव्य-लिंग तो धारण कर लिया है, परन्तु उसके अन्त:करण में इच्छा का रोग लगा हुआ है। इस प्रकार के व्यक्ति को शास्त्रकार 'त्यागी' नहीं कहते हैं। जैसे कि किसी व्यक्ति के भाव हैं कि मैं सुन्दर-सुन्दर वस्त्र धारण कर सुगन्ध का आसेवन करूँ; आभूषणों से अलंकृत हो जाऊँ; नाना प्रकार की ऋतुओं के अनुसार सुख देने वाली शय्याओं में नाना देशों की उत्पन्न हुई स्त्रियों के साथ काम-क्रीड़ाएँ करूँ तथा नाना प्रकार के आसनों द्वारा अपने मन को प्रसन्न करूँ; ऐसी दशा में वह यदि इन पदार्थों का त्याग कर दे तो फल यह होगा कि पदार्थ तो उसको प्राप्त होंगे ही नहीं और इच्छा बनी ही रहेगी। तब हमेशा उसके चित्त में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प होते रहेंगे अर्थात् आर्तध्यान हमेशा बना रहेगा। इसलिए द्रव्य-लिंग धारण किए जाने पर भी वह 'त्यागी' नहीं कहा जा सकता। इस गाथा में धैर्य के रखने के लिए उपदेश दिया गया है और साथ ही वास्तविक त्यागी का लक्षण भी ध्वनिरूप से किया गया है। सूत्र में बहुवचन के प्रसंग में 'चाइ' इस प्रकार जो एक वचन दिया है, वह आर्ष प्रयोग होने से शुद्ध है। उत्थानिका- अब सूत्रकार त्यागी का स्वरूप वर्णन करते हुए कहते हैं - जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठीकुव्वइ। साहीणे चयई भोए , से हुचाइत्ति वुच्चइ॥३॥ यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान् , लब्धान् विपृष्ठीकरोति। स्वाधीनान् त्यजति भोगान् , स खलु त्यागीत्युच्यते॥३॥ * पदार्थान्वयः-जे-जो पुरूष पिए-प्रिय कंते-मन को आकर्षण करने वाले भोएभोगों के लद्धे-मिल जाने पर य-और साहीणे-वशवर्ती हो जाने पर विपिट्टीकुव्वइ-सर्वथा पीठ करता है, चयई-छोड़ता है हु-वास्तव में से-वही पुरूष चाइ-त्यागी त्ति-इस प्रकार वुञ्चइकहा जाता है। ___ मूलार्थ-जो पुरूष प्रिय और कमनीय भोगों के मिलने पर भी उन्हें पीठ दे देता है तथा स्वाधीन भोगों को छोड़ देता है, वास्तव में वही पुरूष 'त्यागी' कहा जाता है। टीका-इस गाथा में त्यागी पुरूष का स्वरूप वर्णन किया गया है। जो पुरूष शोभनरूप और परम इच्छित भोगों के मिल जाने पर भी नाना प्रकार की शुभ भावनाओं द्वारा उनकी ओर पीठ कर देता है तथा स्वाधीन काम-भोगों को छोड़ देता है, वास्तव में उसी पुरूष को त्यागी कहा जाता है। ' जो भोग इन्द्रियों को प्रिय नहीं है, या प्रिय मित्र हैं, पर स्वाधीन नहीं हैं और स्वाधीन 1 इत्यत्र 'टाणा शस्येत्' इत्यनेन शसः स्थाने एद्। दशवैकालिकसूत्रम 15 ] [द्वितीयाध्ययनम्