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________________ का मूलार्थ-जो पुरूष कामों अर्थात्-काम वासना का निवारण नहीं करता है, वह पद-पद पर संकल्पों से खेदखिन्न होता हुआ किस प्रकार संयम-भाव की पालना कर सकता है? टीका-इस गाथा में आक्षेपपूर्वक शिक्षा दी गई है कि, जिस पुरूष ने कामभोगेच्छा का निवारण नहीं किया है, वह पग-पग पर संयम-मार्ग से पतित होता है, क्योंकि जब उस व्यक्ति को काम-भोग की आशा तो बनी हुई है, परन्तु वे उसको प्राप्त होते नहीं हैं, तो फिर संकल्प और विकल्पों के वश होता हुआ किस प्रकार वह श्रमण-भाव की पालना कर सकता है ? अपितु नहीं कर सकता। यहाँ पर 'नु'१ अव्यय आक्षेप अर्थ में आया हुआ है। . _ 'काम' शब्द से यहाँ शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श, इन सब का ही ग्रहण किया गया है। ये सब मोहनीय कर्म के उत्तेजक हैं। इन द्रव्य-कामों से इच्छा-काम और मदन-काम, इस प्रकार दोनों भाव-कामों की वासना जीव को लग जाती है जिससे कि वह प्राणी इच्छा के वश होता हुआ मदन-काम की आसेवना में प्रतिबद्ध हो जाता है। उसे कामी वा कामरागी कहा जाता है। काम-भोगों को शास्त्रकारों ने रोग प्रतिपादन किया है। इससे जो व्यक्ति काम की प्रार्थना करता है, वह वास्तव में रोगों की प्रार्थना कर रहा है। जब तक आत्मा उक्त पाँचों ही विषयों से परामख नहीं हो जाती, तब तक वह सम्यग् विचारणा भी नहीं कर सकती। कामी पुरूष पग-पग पर विषाद पाता है और वस्तु के न मिलने से संकल्प-विकल्पों के वश होकर आर्तध्यान व रौद्रध्यान के वशीभूत सदा बना रहता है। इस गाथा से यह भी शिक्षा प्राप्त होती है कि सम्यग विचारणा वही आत्मा कर सकती है, जो कि कामभोगों से उपरत हो गई हो। जो विषयी आत्माएँ पदार्थों के निर्णय करने की आशा रखती हैं, वे आकाश-पुष्पों को पाने के लिए निरर्थक क्रिया कर रही हैं तथा जिन्होंने द्रव्यलिङ्ग धारण कर रक्खा है और द्रव्य-क्रियाएँ भी कर रहे हैं, परन्तु जिनकी अन्तरंग आत्मा विषयों की ओर ही लगी हुई है, वे वास्तव में अश्रमण ही हैं। . उत्थानिका-अब सूत्रकार इसी बात का प्रकाश करते हुए कहते हैं:वत्थं गंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ॥२॥ वस्त्रं गन्धमलङ्कारम्, स्त्रियः शयनानि च। अच्छन्दा ये न भुञ्जते, न ते त्यागिन इत्युच्यन्ते॥२॥ .. पदार्थान्वयः-जे-जो पुरूष अच्छंदा-परवश होते हुए वत्थं-वस्त्र गंध-गन्ध अलंकारंआभूषण इत्थीओ-नाना प्रकार की स्त्रियाँ सयणाणि-शय्याएँ य-अन्य आसनादि, इनको न भुंजंति-नहीं भोगते हैं से-वह पुरूष चाइत्ति-'त्यागी' इस प्रकार से न वुच्चइ-नहीं कहे जाते हैं। . 1 यथा--कथं नु स राजा, यो न रक्षति प्रजाम् / कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दान् प्रयुक्त। द्वितीयाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [14
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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