________________ अह सामण्णपुब्बिया बिइयं अज्झयणं अथ श्रामण्यपूर्विका द्वितीयमध्ययनम् गत अध्ययन में चारित्र-धर्म के माहात्म्य का दिग्दर्शन कराया गया है। परन्तु स्मरण रहे कि चारित्र-धर्म का वही वीर पालन कर सकता है जिसकी आत्मा परम धैर्यवती और म्यग्दर्शन-सम्पन्न हो. क्योंकि अतिदस्सह सर्वविरतिरूप चारित्र केवल जैन-शासन में ही उपलब्ध होता है, अन्य दर्शनों में नहीं। चारित्र धारण किए बिना न तो परिणामों में दृढ़ता आती है और न किसी कार्य में सफलता प्राप्त होती है। जिस कार्य के लिए जिस प्रकार का चारित्रजैसा क्रियारूप आचरण आवश्यक है उसको धारण किए बिना, वह कार्य कभी भी सफल नहीं हो सकता। यदि उसके बिना. वह कार्य सफल हो सकता होता तो वह उसके लिए आवश्यक कारण ही क्यों कहलाता? इसी लिए शास्त्रकारों ने स्थान-स्थान पर चारित्र की अपरंपार महिमा गाई है। चारित्र की जितनी महिमा है, उतनी ही उसकी आवश्यकता है और जितना यह आवश्यक है, उतना ही वह कठिन है। परम धैर्यवान् ही उसे धारण कर सकता है और वही उसे पाल सकता-निभा सकता है। चारित्र के जो अनेक भेद हैं, वे सब काम को जीतने पर ही सफल होते हैं। चारित्र को पालने के लिए कामदेव को, जो कि 'त्रिभुवनजयी' कहलाता है, जीतना आवश्यक है। इसकी उत्पत्ति-भूमि मन है, जो कि अतिचंचल है और चिरंतन के संकल्प उसके कारण हैं, जो कि बार-बार आकर उसे सताते हैं। इसी लिए सब का जीतना सरल है, मगर इस त्रिभुवनजयी का जीतना अति कठिन है। नवदीक्षित शिष्यों के लिए तो यह और भी कठिन है। इसलिए उनको लक्ष्य में रखकर सूत्रकार कहते हैं: कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीदंतो, संकप्पस्स वसंगओ॥१॥ कथं नु कुर्याच्छ्रामण्यम्, यः कामान निवारयेत्। पदे पदे विषीदन्, सङ्कल्पस्य वशं गतः॥१॥ पदार्थान्वयः-जो-जो पुरूष कामे-कामों को अर्थात्-काम वासना को न निवारएनिवारण नहीं करता है, वह पए पए-पद-पद में विसीदंतो-विषाद पाता हुआ संकप्पस्ससंकल्पों के वसं गओ-वश होता हुआ कहं नु-किस प्रकार से सामण्णं-श्रमण-भाव की कज्जा-पालना कर सकता है।