________________ हो तो वह बात अलग है। ऐसा करना हानिकारक नहीं है, किन्तु रसगृद्धि से किया हुआ किसी प्रकार के आहार का अभिग्रह मुनि-धर्म से विरूद्ध है। इससे साधुओं को उचित है कि वे नाना प्रकार के अभिग्रह तथा अन्त-प्रान्त नीरस आदि प्रासुक आहार के ग्रहण करने में ही रत रहें-उद्वेग-युक्त न हों। साथ ही पाँचों इन्द्रियों और छठे मन को तथा क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि अध्यात्म-दोषों के दमन करने में तत्पर रहें। इस तरह की वृति से अपना जीवन-यापन करने वाले व्यक्ति ही आत्म-साधक बन सकते हैं और वे ही 'साधु' कहलाने के योग्य हैं। उन्हें एषणासमिति तथा ईर्यासमिति के पालन में यत्न करना चाहिए और सदैव परमार्थ में लगे रहना चाहिए। इस अध्ययन से यह भी सिद्ध होता है कि, ज्ञान और क्रिया दोनों से ही निर्वाण-पद की प्राप्ति होती है। जब जीव को सम्यक्-ज्ञान हो जाएगा तभी वह चारित्र की ओर रुचि कर सकता है। सिद्धान्त में चारित्र की व्युत्पत्ति की गई है-'चयरितीकरं चरित्तं आहियं' अर्थात् कर्मों के चय (संचय) को जो रिक्त (खाली) करे, वह 'चारित्र' है। .. ___ यहाँ यदि कहा जाए कि तत्त्व के जानने वाले साधु को चतुरिन्द्रिय भ्रमर की उपमा क्यों दी ? इसका उत्तर यह है कि उपमा एकदेशीय होती है। जैसे- 'चन्द्रमुखी कन्या' / यहाँ केवल सौम्य गुण की अपेक्षा से ही कन्या के मुख को चन्द्र की उपमा दी है। उसी तरह पुष्पों से रस लेते हुए उन्हें पीड़ित न करना तथा किसी अमुक पुष्प-वाटिका से ही रस लेने का नियम न होना, केवल इन्हीं दो गुणों की अपेक्षा से साधु को भ्रमर की उपमा दी गई है। श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे शिष्य ! श्रमण भगवान् श्री . महावीरस्वामी के मुखारविन्द से मैंने जैसा अर्थ इस अध्ययन का सुना है, वैसा ही मैंने तुझसे कहा है। अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा। द्रुमपुष्पिकाध्ययन समाप्त। 12] दशवैकालिकसूत्रम् [प्रथमाध्ययनम्