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________________ उक्त वृत्ति त्रिकालवर्ती है अर्थात् मुनि की मधुकरी वृत्ति तीनों काल में एक समान है। जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों से रस लेकर अपनी आत्मा को तृप्त करता है, उसी तरह मुनि भी गृहस्थों के घरों से आहार लेकर शरीर-साधन करते हुए अपनी आत्मा को ज्ञान, दर्शन और चारित्र से परितृप्त करते हैं। जिस तरह कर्ता की क्रिया में करण साधकतम है, उसी तरह आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिए शरीर कारण है और शरीर की स्थिति के लिए आहार कारण है। इस तरह 'रत्नत्रय' के साधक निरवद्य आहार को लेता हुआ मुनि, अपने आत्मिक गुणों के विकास करने में लवलीन रहे। मुनि को यह ध्यान रखना चाहिए कि 'रसमूर्छित' आदि दोषों से उस आहार को वह दूषित न करे। उत्थानिका-इस प्रकार आहार ग्रहण करते हुए मुनि को अब आगे क्या करना चाहिए? वह कहते हैं:-.. महुगारसमा बुद्धा,जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो॥५॥ त्ति बेमि। - पढमं दुमपुष्फियज्झयणं सम्मत्तं // 1 // मधुकरसमा बुद्धाः, ये भवन्ति अनिश्रिताः। नानापिण्डरता दान्ताः तेन उच्यन्ते साधवः // 5 // इति ब्रवीमि।। . प्रथमं द्रुमपुष्पिकाध्ययनं समाप्तम्॥१॥ पदार्थान्वयः-जे-जो बुद्धा-तत्त्व के जानने वाले हैं महुगारसमा-भ्रमर के समान अणिस्सिया-कुलादि के प्रतिबन्ध से रहित भवंति-हैं नाणापिंड रया-अनेक थोड़ा-थोड़ा कई घरों से.प्रासुक आहारादि के लेने में रया-रत हैं दंता- इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के दमन करने वाले हैं तेण-इसी वृत्तिं के कारण, वे साहुणो-साधु वुच्चंति-कहे जाते हैं त्ति बेमि-इस प्रकार मैं ... कहता हूँ। मूलार्थ-जो तत्त्व को जानने वाले हैं, भ्रमर के समान कुलादि के प्रतिबन्ध से रहित हैं और थोड़ा प्रासुक आहार अनेक जगह से एकत्रित करके अपनी उदरपूर्ति करने वाले हैं तथा इन्द्रियादि के दमन करने में जो समर्थ हैं, वे ही 'साधु' कहे जाते हैं अर्थात् इन गुणों के कारण ही वे 'साधु' कहलाने के योग्य होते हैं। .. टीका-इस गाथा में उक्त विषय का उपसंहार किया गया है। भ्रमर के दृष्टान्त को दार्टान्तिक पर घटाकर उपमा को स्पष्ट कर दिया है। जिस तरह भ्रमर यह प्रतिबन्ध नहीं रखता कि मैं अमुक पुष्पवाटिका से या अमुक पुष्प से ही रस लूँगा, उसी तरह साधु भी ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं रखता कि मैं अमुक के ही घर से अथवा अमुक ही प्रकार का आहार लूँगा। हाँ, यदि किसी तप विशेष के निमित्त से यदि किसी प्रकार से आहार का अभिग्रह कर लिया गया प्रथमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [11
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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