________________ मधुकरी वृत्ति उस समय ग्रहण की जाती है, जबकि अहिंसादि महाव्रत धारण कर लिए जाते उत्थानिका-यदि कहा जाए कि, भक्ति आदि के वश से जब किसी के यहाँ आहार लिया जाए तब तो जीव-हिंसा के होने की सम्भावना की जा सकेगी। यदि न लिया जाए तब स्ववृत्ति के अलाभ से मृत्यु आदि दोषों की प्राप्ति हो जाएगी? इसी प्रकार की शंकाओं के समाधान सूत्रकार कहते हैं वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ। अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा॥४॥ वयं च वृत्तिं लप्स्यामहे, न च कोऽप्युपहन्यते। यथाकृतेषु रीयन्ते, पुष्पेषु भ्रमरा यथा॥४॥ पदार्थान्वयः-अहागडेसु-जिन घरों में अपने लिए भोजन तैयार किया है उनमें वयंहम वित्तिं-वृत्ति भिक्षा को लब्भामो-प्राप्त करेंगे, जिससे कोइ-कोई भी जीव न उवहम्मइ-न मारा जाए जहा-जिस प्रकार कि पुप्फेसु -पुष्पों में भमरा-भ्रमर रीयंते-जाते हैं च-य-चकार पादपूर्णार्थ। मूलार्थ-गृहस्थी ने जो आहारादि अपने लिए बनाए हैं, उनके यहाँ हम वृत्ति भिक्षा को इस तरह प्राप्त करेंगे, जिससे कोई भी जीव विराधित न हो जिस प्रकार कि भ्रमर पुष्पों से रस लेने में किसी को नहीं सताते। टीका-इस गाथा में पूर्व शंका का समाधान किया गया है। जैसे कि-जब यह शंका उत्पन्न की गई थी कि, आहारादि भक्तिभाव से लिया हुआ अवश्यमेव आधाकर्मादि दोषों से युक्त हो जाएगा। तब इस शंका के उत्तर में शंकाकार के प्रति कहा गया है, हम मुनि की आहारादि वृत्ति को उसी प्रकार प्राप्त करेंगे, जिस प्रकार षट्काय में किसी भी जीव की विराधना होने की सम्भावना न की जा सके। जिस प्रकार कि पुष्पों पर रस लेने के लिए भ्रमर जाते हैं. ठीक उसी प्रकार मनि भिक्षाचरी में गमन-किया करते हैं अर्थात गहस्थों ने निमित्त जो भोजन तैयार किए हैं. उसी में भ्रमरवत मनि भिक्षाचारी में प्रवत्त होते हैं। क्योंकि-जो भोजन केवल मुनि के लिए ही तैयार किया गया है वह दोषों से विमुक्त नहीं हैं। इसलिए दोषों की शुद्धि करने के लिए मुनि उसी आहार को लेने के लिए जाते हैं, जिसे कि गृहस्थ लोग अपने ही निमित्त तैयार करवाते हैं। जिस तरह वृक्षों के समूह अपने स्वभाव से पुष्पित और फलित होते हैं, उसी तरह गृहस्थ लोग अपने स्वभाव से ही अन्नादि पकाते हैं। अन्तर है तो केवल इतना ही कि भ्रमर उन पुष्पों का रस लेते समय वृक्षों की आज्ञा नहीं लेता-उन का दिया हुआ नहीं लेता और मुनि, दाता का दिया हुआ ही ग्रहण करते हैं। इस में दोनों समान हैं कि भ्रमर पुष्पों का रस लेने में वृक्ष को कष्ट नहीं पहुँचाते और मुनि आहार लेने में गृहस्थों को कष्ट नहीं पहुँचाते। वे इतना लेते ही नहीं कि जिसमें गृहस्थों को पुनः रसोई बनाने की आवश्यकता पड़े। सूत्रकार ने उक्त गाथा के तृतीय पाद में 'रीयंते' यह वर्तमान काल का और प्रथम पाद में 'लब्भामो' यह भविष्यत्काल का पद दिया है। इसका तात्पर्य यह है. कि मुनियों की 10] दशवैकालिकसूत्रम् [प्रथमाध्ययनम्