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________________ समणा-श्रमण साहुणो-साधु लोग संति-हैं, वे दाणभत्तेसणे-दाता के दिए हुए दान, प्रासुक आहार-पानी और एषणा में इस प्रकार रया- रत होते हैं व-जिस प्रकार पुप्फेसु-पुष्पों में विहंगमा-भ्रमर। मूलार्थ-उसी प्रकार लोक में विद्यमान, आरम्भादि से मुक्त श्रमण-साधु, दाता के द्वारा दत्त प्रासुक आहार-पानी और एषणा में इस प्रकार अनुरक्त होते हैं जिस प्रकार पुष्पों में भ्रमर लीन होते हैं। टीका--पूर्व गाथा में दृष्टान्त का वर्णन किया गया था। इस गाथा में सूत्रकार दार्टान्तिक का वर्णन करते हुए कहते हैं कि, जिस प्रकार भ्रमरगण फूलों का रस लेने की इच्छा से उनके पास जाता है, ठीक उसी प्रकार अढ़ाई द्वीप में जो साधु विद्यमान हैं,वे भी गृहस्थों के घरों में भिक्षा के लिए जाएँ। उक्त गाथा में 'श्रमण' और 'मुक्त' ये दो शब्द दिए गए हैं। वह इसलिए कि 'श्रमण' शब्द का अर्थ 'श्राम्यतीति श्रमण' अर्थात् जो परीषह सहे, वह 'श्रमण' होता है। इस तरह 'श्रमण' शब्द से निर्ग्रन्थ. शाक्य. तापस, गैरिक और आजीवक भी ग्रहण किए जा सकते हैं, अतः उसके साथ 'मुक्त' शब्द लगाना आवश्यक है। 'मुक्त' शब्द का अर्थ हैअन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित आत्मा। 'मुच्यत इति मुक्तः।' उपरोक्त पाँचों प्रकार के श्रमण परीषह तो सहते हैं, किन्तु अन्तरंग परिग्रह के त्यागी नहीं होते। अन्तरंग परिग्रह का त्याग सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के बाद होता है। यही नहीं, बल्कि 'श्रमण' के साथ 'साधु' शब्द का एक और प्रयोग किया गया है। वह इसलिए कि मुक्तबन्धन तो निह्नवादि भी हो जाते हैं, किन्तु वे निर्वाण-पद की साधना नहीं कर सकते। उनके व्यवच्छेद के लिए 'श्रमण' के साथ 'मुक्त' के अतिरिक्त 'साधु' शब्द का विशेषण और लगाना आवश्यक हुआ। 'साधु' का अर्थ है-- “साधयतीति साधुः' अर्थात् जो ज्ञान और निर्वाण-पद की साधना करता है, वह साधु है। गाथा में आए हुए 'लोक' शब्द का अर्थ 'अढ़ाई द्वीप' इसलिए किया गया है कि मनुष्य इन अढ़ाई द्वीपों के भीतर ही पैदा होते हैं तथा जो सूत्रकर्ता ने 'दाणभत्तेसणेरया' - 'दानभक्तैषणेरताः'यह पद ग्रहण किया है, इसका भी अर्थ इस प्रकार से जानना चाहिए। जैसे कि-दान शब्द से यह आशय है कि, दाता के देने से ही दान कहा जाता है। जिससे अदत्तादान का निषेध किया गया अर्थात् आहार-विधि में तृतीय महाव्रत का पालन करने की परमोपयोगिता दिखलाई गई है तथा 'भक्त' शब्द से प्रासुक आहार के ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है अर्थात्- प्रथम महाव्रत का सम्यक्तया पालन करते हुए आधाकर्मादि दोष-युक्त आहार का निषेध किया गया है। साथ ही 'एषणा' शब्द से तीनों एषणाओं का ग्रहण किया गया है अर्थात् एषणासमिति के द्वारा निर्दोष आहार के आसेवन से शरीर की रक्षा का उपदेश किया गया है। इस प्रकार इन गाथाओं के शब्दों पर सूक्ष्म बुद्धि से विचार करते रहना चाहिए। ... सूत्रकर्ता ने 'भ्रमर' शब्द के स्थान पर जो 'विहंगम'' शब्द ग्रहण किया है उसका तात्पर्य यह है कि, जिस प्रकार आकाश में भ्रमर (विहंगम) भ्रमण करता है, ठीक उसी तरह आत्मा कर्मों के वश होकर लोकाकाश में परिभ्रमण कर रही है। उस परिभ्रमण की निवृत्ति के लिए मधुकरी वृत्ति की अत्यंत आवश्यकता है। संसार चक्र से विमुक्त होने से लिए वह 1 विहायसि-आकाशे गच्छति गमनशीलः इति 'विहङ्गमः'। प्रथमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् /
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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