________________ भिक्षादि द्वारा भिक्षु लोग भी खाते हैं, तो फिर उसका पाप क्यों नहीं लगता? इस शङ्का के उत्तर में कहा जाता है कि पाप कर्म करने के तीन हेतु हैं। करना, कराना और अनुमोदन करना। जब कि भिक्षु तीनों कारणों का निरोध कर चुका है तो फिर उसको पाप क्यों लगेगा? इसके अतिरिक्त गृहस्थ लोग उस कार्य को स्वयं ही करते हैं, क्योंकि जिन ग्राम, नगर आदि में भिक्षु नहीं जाते तो क्या उन स्थानों पर लोग अन्नादि नहीं पकाते? अपितु पकाते ही हैं? तो बतलाइए कि क्या वह पाप भी भिक्षुक को ही लगता है? अतः यह कथन युक्तियुक्त नहीं है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार वर्षा तृण आदि के लिए ही नहीं होती; तृणादि मृगादि के खाने के लिए ही वृद्धि नहीं पाते; वृक्षों की शाखाएँ केवल मधुकरों के लिए ही नहीं विकसित होती; उसी प्रकार गृहस्थ लोग भी साधुओं के लिए ही अन्नादि नहीं पकाते। . जिस प्रकार उक्त कार्य स्वाभाविक और समय पर होते रहते हैं, ठीक उसी प्रकार भिक्षु जन भी समय का पूर्ण बोध रखते हुए समय पर ही भिक्षादि के लिए गृहस्थ लोगों के गृहादि में जाते हैं। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस प्रकार वृक्षादि को कोई अदृष्ट शक्ति विकसित नहीं करती, केवल काल (समय) और उन वृक्षों का स्वभाव ही उन्हें विकसित करता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के क्षुधा-वेदनीय का स्वभाव और उसके शान्त करने का समय भिक्षाचरी में मुख्य कारण होता है, क्योंकि जहाँ पर भ्रमरादि नहीं जाते तो क्या वहाँ पर वृक्षादि विकसित नहीं होते ? अपितु होते ही हैं। इसी प्रकार जिन जिन स्थानों पर भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जाते, तो क्या उन स्थानों पर अन्नादि नहीं पकाए जाते ? अपितु अवश्यमेव पकाए जाते हैं। इससे भिक्षु सर्वथा निर्दोष हैं। ___ यहाँ यदि यह कहा जाए कि जहाँ पर गृहस्थं भक्तिवश केवल साधु के लिए ही आहार तैयार करवाता है, तो वहाँ पर उस आहार को ग्रहण करने से साधु कैसे पाप से लिप्त न होगा? इसका उत्तर यह है कि यदि साधु को मालूम हो जाए कि यह आहार मेरे लिए ही तैयार करवाया है और फिर वह उसे ले ले तो वह साधु अवश्य पापलिप्त होगा, क्योंकि साधुकरना, कराना और अनुमोदन करना-कृत-कारित-अनुमोदना, इन तीनों का ही त्यागी होता है। इतना ही नहीं, किन्तु जैन साधु के लिए भगवान् महावीर की आज्ञा है कि वह परमोत्कृष्टभयंकर से भयंकर-संकट का समय उपस्थित होने पर भी वृत्ति से विरूद्ध आचरण कभी न करे। जो साधु अपनी शास्त्रोक्त क्रियाओं पर खड्गधारा के समान चला जा रहा है, वह पाप क्रियाओं से कभी लिप्त नहीं होता। उत्थानिका-अब सूत्रकार दार्टान्तिक का भाव कहते हैं:एमए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे (णे)रया॥३॥ एवमेते श्रमणा मुक्ताः, ये लोके सन्ति साधवः। विहङ्गमा इव पुष्पेषु, दानभक्तैषणे रता : // 3 // पदार्थान्वयः-एमेए-उसी प्रकार से ये लोए-लोक में जे-जो मुत्ता-मुक्त बँधन 8] दशवैकालिकसूत्रम् * [प्रथमाध्ययनम्