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________________ जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं। ण य पुष्पं किलामेइ, सो अ पीणेइ अप्पयं // 2 // यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमर आपिबति रसम्। न च पुष्पं क्लामयति,स च प्रीणाति (प्रीणयति) आत्मानम्॥२॥ पदार्थान्वयः-जहा-जिस प्रकार भमरो-भ्रमर दुमस्स-वृक्ष के पुप्फेसु-पुष्पों में से रसं-रस को आवियइ-मर्यादापूर्वक पीता है य-तथा पुष्फं-पुष्प को ण य-नहीं किलामेइपीड़ा देता सो-वह (भ्रमर) अप्पयं-आत्मा को पीणेइ-तृप्त करता है। - मूलार्थ-जिस प्रकार भ्रमर, वृक्ष के पुष्पों में से पुष्प को बिना कष्ट दिए हुए रस को परिमाणपूर्वक पीता है और अपनी आत्मा को भी तृप्त कर लेता है। टीका-इस गाथा में धर्ममूर्ति आत्मा के आहार की विधि का निरूपण दृष्टान्त द्वारा किया गया है कि जिस प्रकार भ्रमर वृक्ष के पुष्पों पर जाकर प्रमाण-पूर्वक उन पुष्पों के रस को पी लेता है और उस रस से स्वकीय आत्मा की तृप्ति कर लेता है, परन्तु उन पुष्पों को पीड़ित नहीं करता / अब इस कथन से यहाँ यह शङ्का उत्पन्न हो जाती है कि शास्त्र ने पंचावयवरूप वाक्य को छोड़कर यहाँ केवल दृष्टान्त को ही क्यों ग्रहण किया? इसका उत्तर यह है कि हेतु और प्रतिज्ञा में दृष्टांत को ही मुख्य माना जाता है, अतः सूत्रकार ने इस स्थान पर उसी का ग्रहण किया है। पूर्व गाथा में पंचावयव-रूप वाक्य से धर्म-मंगल सर्वोत्कृष्ट सिद्ध किया ही गया है। यथा--अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म-मंगल उत्कृष्ट है यह प्रतिज्ञा वचन है, क्योंकि यहाँ पर धर्म कहने से धर्मी का निर्देश किया है। फिर अहिंसा, संयम और तप रूप, ये धर्मी के विशेषण हैं / उत्कृष्ट मंगल के कथन करने से धर्म साध्य बतलाया गया है। अतएव धर्मी और धर्म-समुदाय का कथन करने से पूर्व गाथा के दो पादों द्वारा प्रतिज्ञा का कथन किया गया है। फिर देव आदि से वह धर्मी पजित है, इस प्रकार कथन करने से हेतु की सिद्धि की गई है। 'अपि'शब्द से विद्याधर आदि का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। पूर्व गाथा के तृतीय पाद से हेतु का कथन किया गया है। ‘अर्हदादिवत्' यह दृष्टान्त है तथा जो जो देवादि से पूजित है, वे वे उत्कृष्ट मंगल हैं। जैसे अहंदादि तथा देवादि से जो पूजित है वह धर्म है। इसलिए देवादि से पूजित होने से ही उत्कृष्ट मंगल है। सूत्रकर्ता ने जब दो अवयवों का ग्रहण कर लिया तब शेष तीनों अवयव अविनाभावी होने से साथ ही ग्रहण कर लिए गए हैं। इसी तरह प्रत्येक गाथा में भी न्याय के आश्रित होकर विषय की सम्भावना कर लेनी चाहिए। स्थानान्तर पर जो भ्रमर का उदाहरण दिया गया है, वह देशोपमा से ही साध्य हो सकता है, न कि सर्वोपमा से। जैसे कि इसका मस्तक चन्द्रवत् सौम्य है। यहाँ पर चन्द्र का सौम्य गुण मस्तक में देशोपमा से माना गया है। इसी प्रकार भ्रमर अविरतादि गुणों से युक्त होने पर भी जो अनियतवृत्तिता उसमें गुण है, सूत्रकर्ता ने उसी गुण को लक्ष्य में रखकर दृष्टान्त में भ्रमर ग्रहण किया है। यहाँ यदि ऐसा कहा जाए कि गृही लोग अन्नादि जो पदार्थ पकाते हैं, उन पदार्थों को प्रथमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [7
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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