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________________ माहात्म्य दिखलाने के लिए ही 'वि' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिससे प्रतीत हो जाए कि जो वर्तमानकाल में महाऋद्धिशाली चक्रवर्ती आदि महानरेश हैं, वे भी धर्मात्मा पुरूषों की पर्युपासना करने में अपना कल्याण समझते हैं और इसी कारण वे ऋषि वा महर्षियों की सेवा, . नमस्कार क्रिया तथा उनकी स्तुति करते रहते हैं। गाथा के चतुर्थ चरण का वर्णन यह दिखलाने के लिए किया गया है कि देवता अथवा अन्य महान् व्यक्ति उसी धर्मात्मा पुरूष को नमस्कार करते हैं, जिसका मन सदा उक्त धर्म-मंगल में लगा रहता है अर्थात् जिसने आयु-पर्यन्त उक्त धर्म को धारण कर लिया है। यहाँ यदि यह कहा जाए कि प्रत्येक धर्म, मंगलरूप हो सकता है यदि उसमें सहानुभूति का गुण पाया जाए तो, इसमें कुछ भी विवाद नहीं है। भले ही वह धर्म मंगलरूप धारण कर ले, यदि वह सहानुभूति स्वार्थरूप से है तब तो वह धर्म, मङ्गल का रूप नहीं कहा जा सकता, किन्तु धर्म के रूप में प्रायः अपने स्वार्थ की सिद्धि की जाती है। हाँ, यदि वह सहानुभूति स्वार्थ के भावों को छोड़कर केवल परोपकार की बुद्धि से की जाती है, तब तो वह धर्म, मंगल-रूप अवश्य है। इसमें किसी को भी विवाद करने का स्थान नहीं है। / यहाँ यदि यह कहा जाए कि जब मुक्ति-पद की प्राप्ति के लिए सम्यग् दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र, इन तीनों का समूह वर्णन किया गया है, तो फिर यहाँ क्रम को छोड़कर केवल चारित्र को ही क्यों उत्कृष्टता दी गई? तो इसका उत्तर यह है कि 'उत्तराध्ययन-सूत्र' के २८वें 'मोक्षमार्ग' नामक अध्याय में प्रतिपादन किया है कि- 'नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुति चरणगुणा / अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं' अर्थात् बिना सम्यग्दर्शन के ज्ञान और ज्ञान के बिना चारित्र के गुण उत्पन्न नहीं हो सकते। बिना गुणों के मोक्ष और बिना मोक्ष के निर्वाण-पद प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए कर्म-क्षय करने के लिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का साध्य चारित्र रूप तृतीय गुण ही हो जाता है। इसी लिए इस गाथा में सम्यग दर्शन अथवा ज्ञान हो जाने के पश्चात चारित्र रूप धर्म की उत्कष्टता दिखलाई गई है। चारित्र रूप धर्म में प्रथम अहिंसा रूप व्रत का ही निरूपण किया गया है तथा अहिंसा रूप व्रत की रक्षा के लिए शेष व्रतों का वर्णन किया गया है। साथ ही संयम और तप, इन दो शब्दों के कहने से तो चारित्र-धर्म का सर्वस्व ही प्रतिपादन कर दिया गया है, क्योंकि जितनी भी चारित्र रूप धर्म की व्याख्या है, वह सब संयम और तप रूप धर्म की ही व्याख्या है। इसलिए जिसके मन में प्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रूप उत्कृष्ट धर्म-मंगल उत्पन्न हो चुके हों, उसी आत्मा को अहिंसा-धर्म रूप मंगल की प्राप्ति हो सकती है तथा इसी सूत्र के चतुर्थाध्याय में दया का कारण ज्ञान माना है। इसलिए जब दर्शन और ज्ञान, कारण हुए तो फिर चारित्र रूप धर्म-कार्य सहज में ही हो जाता है। अतः चारित्र रूप धर्म को उत्कृष्ट मंगल मानना युक्तिसंगत सिद्ध होता है। उत्थानिका-जब आत्मा सम्यग् दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र रूप धर्म से अलंकृत हो जाती है, तब वह चारित्र रूप धर्म का पालन करने के लिए अपने शरीर की पालना शुद्ध आहार आदि के द्वारा करने लगता है, क्योंकि शरीर आहारादि के आश्रित ही रह सकता है। अतएव अब सूत्रकार दृष्टान्त द्वारा आहार की शुद्धि का वर्णन करते हुए मुनिवृत्ति का निरूपण करते हैं दशवैकालिकसूत्रम् [प्रथमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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