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________________ संयम, (16) वचन-संयम (17) काय-संयम। इन संयमों के कथन करने का सारांश इतना ही है कि अहिंसा-धर्म की पालना करने के लिए प्रत्येक कार्य के करते समय यह यत्न करना चाहिए कि किसी भी जीव के द्रव्य अथवा भाव प्राणों का घात न हो जाए। बारह प्रकार के तप का वर्णन भी इसीलिए किया गया है कि इच्छाओं का सर्वथा निरोध करके उक्त धर्म का सुखपूर्वक पालन किया जा सके। बारह तप इस प्रकार हैं:- (1) अनशन, (2) ऊनोदरी, (3) भिक्षाचरी, (4) रसपरित्याग, (5) कायक्लेश, (6) प्रतिसंलीनता, ये छः प्रकार के बाह्य तप हैं। इसी प्रकार से छः प्रकार के आभ्यन्तर तप भी हैं। जैसे कि-- (1) प्रायश्चित्त, (2) विनय, (3) वैयावृत्य, (4) स्वाध्याय, (5) ध्यान (6) व्युत्सर्ग। इन संयम और तपों के द्वारा अहिंसा रूप धर्म-मंगल की सुखपूर्वक पालना की जा सकती है। इस प्रकार सूत्रकार ने उक्त गाथा के प्रथम दो पादों में धर्म-मंगल और उसके विशेषण-लक्षण प्रतिपादन किए हैं। शेष दो पादों में धर्म-मंगल का माहात्म्य वर्णन किया है कि जो आत्मा उक्त कथन किए हुए धर्म-मंगल से अलंकृत हो जाती है, उसको देवता तथा चक्रवर्ती आदि महापुरूष भी नमस्कार करते हैं। अथवा जिस पुरूष का उक्त धर्म में मन सदा लगा रहता है, उसी को देवता आदि नमस्कार करते हैं, अन्य को नहीं। कारण कि धर्ममंगल-धारक व्यक्ति सब का पूज्य बन जाता है। इस प्रकार इस गाथा में धर्म-मंगल की उत्कृष्टता, उसके लक्षण तथा उसके माहात्म्य का दिग्दर्शन कराया गया है। . ___यहाँ यदि कहा जाए कि धर्म-मंगल मात्र ही उत्कृष्ट है, इसलिए उसमें अहिंसारूप विशेषण नहीं लगाना चाहिए ? तो इसका उत्तर यह है कि 'धर्म' शब्द के अनेक अर्थ हैं और उसका कई प्रकार से प्रयोग किया जाता है। जैसे-ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, देश-धर्म, पाखंड-धर्म, अस्तिकाय-धर्म इत्यादि। धर्म शब्द के अनेक अर्थों में गमन करने के कारण शंका उत्पन्न हो सकती है कि-ग्राम-धर्म परमोत्कृष्ट मंगल है अथवा पाखंड-धर्मादि उत्कृष्ट मंगल हैं? इसी शंका के व्यवच्छेद करने के लिए सूत्रकर्ता ने धर्म-मंगल के साथ ही 'अहिंसा' पद जोड़ दिया है। जिससे फिर किसी को.शंका करने का अवसर प्राप्त न हो सके। साथ ही उस अहिंसा की रक्षा के लिए संयम और तप, जो कि उसके मुख्य हेतु हैं, वर्णन कर दिए हैं, क्योंकि बहुत से लोग अपनी मानी हुई हिंसा को भी अहिंसा की कोटि में रखते हैं। जैसे कि यज्ञों की हिंसा को कतिपय लोगों ने वेद-विहित होने से अहिंसा ही स्वीकार किया है। किसी-किसी ने अपनी वर्णाश्रम की विधि में होती आई हिंसा को अहिंसा माना है। किसी-किसी ने संग्राम आदि की हिंसा को अहिंसा का रूप दे रक्खा है इत्यादि विकल्पों के व्यवच्छेद करने के लिए सूत्रकर्ता ने संयम शब्द से सत्रह प्रकार की हिंसाओं का निषेध कर दिया है। इतना ही नहीं, किन्तु इच्छा के उत्पन्न होने से जो हिंसा उत्पन्न होती है, उसका भी निषेध करने के लिए उन्होंने 'तप' शब्द का प्रयोग कर दिया है। . धर्म-मंगल का माहात्म्य वर्णन करते हुए पहले जो देवताओं का पद रक्खा है, उसका कारण यह है कि लौकिक में लोग देवों की विशेष उपासना करते हैं। परन्तु धर्म-मंगल की तो देवता लोग भी उपासना करते हैं इस बात को स्फुटतया दिखलाया गया है तथा जो 'वि''अपि' शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका कारण यह है कि यद्यपि सूत्रकर्ता के ज्ञान में देव प्रत्यक्षरूप में ठहरे हुए हैं तथापि प्रायः सामान्य जनता के सामने देव परोक्ष हैं। अतः धर्म प्रथमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 5
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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