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________________ मंगलमय पदार्थों को देखने से मुझे मंगल रूप पदार्थों की उपलब्धि होती रहेगी। संसार में पाँच प्रकार के पदार्थ मंगल रूप माने गए हैं :- 1. पुत्रादि के जन्म पर गाए जाने वाले मंगल रूप गीतों को 'शुद्ध-मंगल' माना गया है; 2. नूतन गृहादि की रचना करने को 'अशुद्धमंगल' कथन किया गया है, क्योंकि गृह आश्रव आदि का मूल कारण है। 3. विवाहोत्सव के समय जो शुभ गीतादि गाए जाते हैं, उसको 'चमत्कार-मंगल' प्रतिपादन किया गया है; 4. धनादि की प्राप्ति को 'क्षीण-मंगल' बतलाया गया है और पाँचवाँ षट्काय की रक्षा रूप 'धर्म-मंगल' श्री भगवान् द्वारा वर्णन किया गया है। धर्म-मंगल के अतिरिक्त प्रथम कहे हए चार मंगल समयान्तर में अमंगल के रूप को भी धारण कर लेते हैं। परन्तु धर्म-मंगल संसार-पक्ष में उक्त मंगलों की प्राप्ति कराता हुआ जीव को निर्वाण-पद की प्राप्ति कराने में अपनी सामर्थ्य रखता है। कारण कि _ 'दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः' / 'धर्म' शब्द की व्युत्पत्ति शास्त्रकारों ने यही कथन की है कि जो दुर्गति में पड़ते हुए प्राणियों को उठाकर सुगति में स्थापित करता है, उसे 'धर्म' कहते हैं तथा जिस प्रकार सुन्दर वा शुद्ध जल उद्यान वा आराम के सौन्दर्य को बढ़ाता है अथवा पुष्पों आदि को विकसित करने में सहायक बनता है, ठीक उसी प्रकार धर्म-मंगल भी आत्मा को विकसित करने में सहायक होता है। अतएव आत्मा को विकसित होने के लिए अथवा आत्मा को ही मंगल रूप बनाने के लिए इस गाथा में धर्म-मंगल का ही अधिकार किया गया है। प्रथम के चार मंगलों का यहाँ इसलिए उल्लेख नहीं किया गया,क्योंकि एक तो वे नित्य मंगल नही हैं। दूसरे वे धर्म रूप मंगल के ही फल रूप कथन किए गए हैं। इसलिए इस स्थान पर केवल धर्म-मंगल अथवा धर्म-मंगल के माहात्म्य का.ही वर्णन किया गया है, क्योंकि सब मांगलिक पदार्थों में उत्कृष्ट अथवा सब मांगलिक पदार्थों का उत्पादक धर्म-मंगल ही है। वह धर्म-मंगल--अहिंसा (प्राणियों की रक्षा), संयम (आस्रव का निरोध) और तप (इच्छा निरोध) रूप है। ___ यद्यपि विशेषण के सामान्य कथन करने से ही अभिप्रेत पदार्थों की संपूर्ण सिद्धि की जा सकती है तथापि शास्त्रकार ने इस स्थान पर विशेषण का विशेष रूप से वर्णन कर दिया है। अर्थात् यद्यपि धर्म-मंगल अहिंसा रूप ही होता है, परन्तु जब तक आस्रव (कर्म आने के मार्ग) का निरोध और तप (इच्छा के निरोध) का सम्यक्तया आसेवन नहीं किया जाए, तब मात्मा अहिंसा देवी की भी सम्यक्तया उपासना नहीं कर सकती, क्योंकि अहिंसा का पालन उसी समय हो सकता है जबकि आस्रव के मार्गों का सर्वथा निरोध करते हुए तप द्वारा इच्छाओं का भी निरोध कर दिया जाए। इसके बिना अहिंसा रूप धर्म की पालना सम्यक्तया नहीं की जा सकती। अहिंसा की सम्यक्तया पालना के लिए ही सत्रह प्रकार के संयम प्रतिपादन किए गए हैं। जो कि निम्नलिखित हैं: (1) पृथ्वीकाय-संयम, (2) अप्काय-संयम, (3) तेजस्काय-संयम, (4) वायुकाय-संयम, (5) वनस्पतिकाय-संयम, (6) द्वीन्द्रिय-संयम, (7) त्रीन्द्रिय-संयम (8) चतुरिन्द्रिय-संयम (9) पञ्चेन्द्रिय-संयम (10) अजीवकाय-संयम, (11) उपेक्षा-संयम, (12) उत्प्रेक्षा-संयम, (13) अपहृत्य-संयम, (14) अप्रमार्जना-संयम, (15) मनः 4] दशवैकालिकसूत्रम्- . [प्रथमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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