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________________ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स दुमपुफिया पढमं अज्झयणं द्रुमपुष्पिका प्रथममध्ययनम् धम्मो मंगलमुक्कि, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नर संति, जस्स धम्मे सयामणो॥१॥ धर्मः मङ्गलमुत्कृष्टम् , अहिंसा संयमस्तपः। देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सद. मनः॥१॥ पदार्थान्वयः-अहिंसा-दया करना, हिंसा न करना संजमो-संयम तवो-इच्छाओं का निरोध करना, जो धम्मो- धर्म है, वह उक्टुिं-उत्कृष्ट मंगलं-मंगल है जस्स- जिसका धम्मे-धर्म में सया-सदा मणो- मन हैं तं-उस (धर्मयुक्त व्यक्ति को) देवा-देवता वि-भी (अपि शब्द से अन्य चक्रवर्त्यादि) नर्मसंति-नमस्कार करते हैं। - मूलार्थ-अहिंसा, संयम और तप रूप जो धर्म है, वह उत्कृष्ट मंगल है। जिसका उक्त धर्म में मन सदा लगा रहता है, उस धर्मात्मा को देवता तथा अन्य चक्रवर्त्यादि भी नमस्कार करते हैं। टीका-यद्यपि इस अनादि-अनन्त संसार-चक्र में परिभ्रमण करते हुए प्रत्येक प्राणी को प्रत्येक पदार्थ की प्राप्ति हुई, हो रही है और हो रही होगी, परन्तु जिससे वह संसार से पार हो जाए , उसं पदार्थ की उसे प्राप्ति होना असाध्य तो नहीं, किन्तु कष्टसाध्य अवश्य है। जब पूर्व पुण्योदय अथवा स्वकीय क्षयोपशम-भाव के कारण मनुष्य-जन्म की और उसके सहकारी पदार्थों की प्राप्ति हो, तब जानना चाहिए कि निर्वाण-पद अब इस आत्मा के निकट हो रहा है या यह आत्मा निर्वाण-पद को शीघ्र प्राप्त करेगी, क्योंकि जब तक आत्मा उपशमभाव, क्षयोपशम-भाव अथवा क्षायिक-भाव को पूर्णतया प्राप्त नहीं करती, तब तक वह धर्मपथ से पराङ्मुख ही रहती है। , इसका कारण यह है कि औदयिक-भाव की प्रकृतियाँ इस आत्मा को संसार के पदार्थों की ओर ही प्रवृत्त कराती हैं और औपशमिक आदि भावों की शक्तियाँ इस आत्मा को निर्वाण-साधन के लिए उत्साहित तथा बाध्य करती हैं। इसीलिए ऐसे मंगलमय पदार्थ, मंगलमय कारणों के सिद्ध करने वाले प्रतिपादन किए गए हैं। प्रत्येक आत्मा मंगल रूप पदार्थों को देखने की इच्छा करती है। वह जानती है कि
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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