________________ .. . ममता साधु को अन्य वृत्तियों का भी इसी प्रकार ग्रहण कर लेना चाहिए। उपर्युक्त क्रियाओं के करने से साधु की विहार चर्या ठीक होती है एवं पराधीनता के स्थान में स्वतंत्रता की भावना जाग्रत होती है। शुभ क्रियाओं का अन्तिम फल निर्वाण होता है और यही मुनि का चरम लक्ष्य है। उत्थानिका- अब शयनासन आदि की ममता नहीं करने का उपदेश देते हैं:ण पडिन्नविज्जा सयणासणाई, सिज्जं निसिज्जं तह भत्तपाणं। * गामे कुले वा नगरे व देसे, . ममत्त भावं न कहिंपि कुजा॥८॥ न प्रतिज्ञापयेत् शयनासने, शय्यां निषद्यां तथा भक्तपानम्। ग्रामे कुले वा नगरे वा देशे, ममत्वभावं न क्वचिदपि कुर्यात्॥८॥ पदार्थान्वयः- मास कल्पादि की समाप्ति पर जब विहार करने का समय आए, तब साधु सयणासणाई-संस्तारक और आसन सिजं-वसति निसिजं-स्वाध्याय भूमि तह-तथा भत्तपाणंअन्न पानी को लेकर ण पंडिन्नविजा-श्रावक को यह प्रतिज्ञा न कराए कि- "जब मैं लौट कर आऊँगा तब उक्त पदाथों को ग्रहण करूँगा, अतः ये पदार्थ मुझे ही देना और किसी को नहीं।" अतएव साधु गामे-ग्राम में नगरे-नगर में व-तथा देसे-देश में वा-तथा कुले-कुल में कहिंविकिसी स्थान पर भी ममत्तभावं-ममत्व भाव न कुज्जा-न करे। मूलार्थ-शयन, आसन, शय्या, स्वाध्यायभूमि एवं अन्न-पानी के विषय में साधुको श्रावक से यह प्रतिज्ञा नहीं करानी चाहिए कि जब मैं वापस लौट कर आउँ, तब 'ये पदार्थ मुझे ही देना और किसी को नहीं। क्योंकि साधु को ग्राम, नगर, कुल और देश आदि किसी भी वस्तु पर ममत्व भाव करना उचित नहीं है। - टीका-किसी क्षेत्र में ठहरे हुए जब मासकल्प आदि पूरा हो जाए, तो विहार करते समय साधु को श्रावकों से यह नहीं कहना चाहिए कि 'ये शयन- संस्तारक, आसन- पीठ फलक आदि, शय्या- वसति, निषद्या- स्वाध्याय भूमि तथा तत्कालावस्थायी खंड खाद्य, द्राक्षापान आदि, वस्तुएँ सुरक्षित रखना और जब मैं लौट कर आऊँ, तब मुझे ही देना। यदि कोई और मांगे तो उसको स्पष्टत: मनाही कर देना।' इस प्रकार कहने का निषेध इसलिए किया है कि ऐसा करने से ममत्व भाव का दोष लगता है। ममत्वभाव का सार्वत्रिक निषेध करते हुए सूत्रकार और भी स्पष्टतः कथन करते हैं कि ग्राम, नगर, कुल और देशादि किसी स्थान पर भी साधु को ममत्व भाव नहीं करना चाहिए, क्योंकि यावन्मात्र दुःखों का मूल कारण ममत्वभाव ही है। जिसने ममत्व को जीत लिया, उसने सब कुछ जीत लिया। द्वितीया चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [469