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________________ स्वपक्ष और परपक्ष की ओर से यदि अपना अपमान हो रहा हो, तो उसे शान्ति से सहन करना . चाहिए: क्योंकि यही मार्ग बढती हई अशान्ति के स्थान में शान्ति का करने वाला है तथा उपयोगपूर्वक ही शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिए; अन्यथा बहुत अधिक आधाकर्म आदि दोषों के लग जाने की आशंका है तथा किन्हीं योग्य पदार्थों से हस्त वा कड़छी आदि संसृष्ट हों (खरड़े हुए हों) तो उन्हीं से आहार लेना चाहिए; अन्यथा पुरः कर्म दोष की संभावना है। जिस पदार्थ के लेने की इच्छा हो,यदि उसी से हस्तादि संसृष्ट हों तो उसे ही ले लेना चाहिए; अन्यथा संसर्जन दोष की उत्पत्ति होती है। यह उपर्युक्त वृत्ति मुनियों के लिए प्रशस्त रूप से प्रतिपादन की गई है। अतः इसको पालन करने के लिए यतिवरों को पूर्ण यत्न करना चाहिए। इस वृत्ति के पालन में पुरुषार्थ करने से आत्मा का वास्तविक कल्याण होता है। उत्थानिका- अब आध्यात्मिक उपदेश देते हैं:अमज्जमंसासि, अमच्छरीआ, अभिक्खणं निव्विगइंगया य। अभिक्खणं काउसग्गकारी, सज्झायजोगे पयओहविज्जा॥७॥ अमद्यमांसाशी अमत्सरी च, ___ अभीक्ष्णं निर्विकृतिं गताश्च। अभीक्ष्णं कायोत्सर्गकारी, स्वाध्याययोगे प्रयतो भवेत्॥७॥ पदार्थान्वयः-अमज्जमंसासि-मद्य और मांस का परित्यागी अमच्छरी-द्वेष से रहित च-तथा अभिक्खणं-बारंबार निव्विगइं-निर्विकृति को गया-प्राप्त करने वाला.अ-तथा अभिक्खणं काउसग्गकारी-बारंबार कायोत्सर्ग करने वाला साधु सज्झायजोगे-स्वाध्याय योग में पयओप्रयत्नवान् हविज-हो। मूलार्थ-यदि सच्चा साधु बनना है तो मद्य और मांस से घृणा करे, किसी से ईर्ष्या मत करे, बारंबार पौष्टिक भोजन का परित्याग और कायोत्सर्ग करता रहे तथा स्वाध्याय योग में प्रयत्नवान् बने। टीका-साधु को मद्य और मांस का कदापि सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये दोनों अभक्ष्य पदार्थ हैं, बुद्धि को भ्रष्ट करने वाले हैं तथा किसी से ईर्ष्या भी नहीं करनी चाहिए; क्योंकि ईर्ष्या से विश्वबन्धुत्व की भावना नष्ट होती है और आत्मा में अयोग्य संकीणता आती है तथा बारंबार घृतादि पौष्टिक पदाथों का भी सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि पौष्टिक पदाथों का प्रतिदिन सेवन करने से मादकता की वृद्धि होती है। प्रतिदिन पुनः पुनः कायोत्सर्ग ध्यान करना चाहिए; क्योंकि ध्यान से आत्म-शुद्धि होती है तथा वाचनादि स्वाध्याय योग में प्रयत्नशील होना. चाहिए; क्योंकि स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि होती है एवं चित्त में स्थिरता आती है। उपलक्षण से 468 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ द्वितीया चूलिका
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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