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________________ जगह अधिक रहने से ममत्व भाव का उदय होता है तथा अनेक घरों से भिक्षाचरी द्वारा भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए; क्योंकि एक घर के आहार में आरंभ समारंभ का दोष लगता है तथा अज्ञात कुलों से स्तोक मात्र ही विशुद्ध धर्म सम्बन्धी उपकरण लेने चाहिए, क्योंकि ज्ञातकुल से लेने में क्रीतकृत आदि दोषों की संभावना रहती है। प्रायः भीड़ रहित एकान्त स्थान में ही ठहरना चाहिए; क्योंकि बिना एकान्त स्थान के कोलाहल के कारण चित्त में स्थिरता नहीं आती तथा उपधि धर्मोपकरण अल्प ही रखने चाहिए क्योंकि अधिक रखने से परिग्रह की वृद्धि होकर ममत्व भाव बढ़ेगा तथा किसी के साथ कलह भी नहीं करना चाहिए क्योंकि कलह से आत्मा की शान्ति भंग होती है और जनता में धर्म के प्रति घृणा के भाव उत्पन्न होते हैं। उपर्युक्त अनियतवासरूप विहार चर्या मुनियों के लिए भगवंतों ने प्रतिपादन की है; जो अतीव सुन्दर है। विहार चर्या का मन्तव्य मर्यादावर्ती होना है और वह इसमें पूर्ण रूप से है: उत्थानिका- अब फिर इसी विषय पर कहा जाता है:आइन्नओ माणविवज्जणा अ, . ओसन्नदिट्ठाहडभत्तपाणे / संसट्ठकप्पेण चरिज भिक्खू, - तज्जायसंसट्ट जइ जइज्जा॥६॥ आकीर्णावमानविवर्जना च, उत्सन्नदृष्टाहृतं भक्तपानम्। - संसृष्टकल्पेन चरेद् भिक्षुः, .. तज्जातसंसृष्टः यतिर्यतेत॥६॥ पदार्थान्वयः-भिक्खू-भिक्षण शील जइ-साधु को आइन्नओमाण-विवजणाराजकुल संखडी एवं स्वपक्ष और परपक्ष से उत्पन्न अवमान, इन दोनों को वर्जना चाहिए 'ओसन्नदिट्ठाहडभत्तपाणे-प्रायः उपयोगपूर्वक ही प्रशस्त आहार पानी ग्रहण करना चाहिए संसदकप्पेण-संसष्ट हस्तादि द्वारा ही आहार लेते हए चरिज-विचरना चाहिए तज्जायसंसदयदि उसी पदार्थ से हस्तादि संसृष्ट हों तो उसी के ग्रहण करने में जइज्ज-यत्न करना चाहिए। मूलार्थ-वस्तुतः कर्मों को क्षय करने वाला यत्नशील साधु वही होता है , जो जनाकीर्ण राज संखड़ी का और अपमान का परित्याग करता है, जो उपयोगपूर्वक ही शुद्ध भिक्षा ग्रहण करता है, जो खरड़े हुए हस्तादि से ही आहार-वस्तु लेता है एवं यदि दीयमान पदार्थों से संसृष्ट हो तो उन्हीं को लेने का यत्न करता है। टीका-इस सूत्र में साधुचर्या के विषय में ही वर्णन किया गया है। यथा- जिस राजकुलादि में प्रीतिभोज हो रहा हो और जो अनेक मनुष्यों के यातायात से संकीण हुआ हो, ऐसे स्थान में साधु को भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए; क्योंकि वहाँ पर स्त्री आदि का संघट्ठा होता है तथा भीड़ के कारण किसी के धक्के से गिरने पर चोट लग जाने की भी संभावना है तथा द्वितीया चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [467
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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