________________ विशेषता वाले हैं। उन्हें अपने विहार, मूलोत्तर गुण और नियम आदि, जिस समय जो. आवश्यक हों उस समय वे ही कर्तव्य हैं।। टीका-जो साधु ज्ञानादि आचारों में पराक्रम करता है तथा इन्द्रियजय रूप संयम का धनी है अर्थात् चित्त की अनाकुलता रूप समाधि से संपन्न है, उसको योग्य है कि वह 'भिक्षुभावसाधिका''अनियतवासादिस्वरूपा' चर्या का, मूलोत्तर रूप गुणों का तथा पिंडविशुद्धि आदि नियमों का शास्त्रनिर्दिष्ट समय के अनुसार ही आचरण करे। भाव यह है कि शास्त्रों में जिस जिस समय जो जो क्रियाएँ करनी आवश्यक बतलाई हों, उस उस समय उन-उन क्रियाओं का ही साधु को आचरण करना चाहिए, विपरीत नहीं। कारण यह है कि सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान द्वारा जो चारित्र की आराधना की जाती है, वही सम्यग् रूप होने से आत्म . कल्याण करने वाली होती है। बिना देश काल का सम्यग् ज्ञान चारित्र सुखकर कभी नहीं हो सकता है। उत्थानिका- अब चर्या के विषय में कहते हैं:अनिएअवासो समुआण चरिआ, अन्नायउंछं पइरिक्या अ। . अप्पोवही कलहविवज्जणा अ, विहारचरिआइसिणं पसत्था॥५॥ अनिकेतवासः समुदानचर्या, अज्ञातोंच्छं प्रतिरिक्तता च। / अल्पोपधिः कलहविवर्जना च, विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ता॥५॥ पदार्थान्वयः-अनिएअवासो-एक ही स्थान पर सदा नहीं रहना समुआणचरिआअनेक घरों से भिक्षाचरी द्वारा भिक्षा ग्रहण करना अ-तथा अन्नाय उंछं-अज्ञात कुलों से स्तोक स्तोक मात्र धर्मोपकरण लेना पइरिक्कया-एकान्त स्थान में निवास करना अप्पोवही-अल्प उपधि रखना अ-एवं कलहविवजणा-कलह का परित्याग करना यह इसीण-ऋषियों की विहारचरिआविहार चर्या है, जो पसत्था-अतीव प्रशस्त है। मूलार्थ-प्रायः सदा एक ही स्थान पर नहीं रहना, समुदानी भिक्षा करना, अज्ञात कुल से थोड़ा-थोड़ा करके आवश्यक आहारादि लेना, एकान्त स्थान में निवास करना, अल्प उपधि रखना और कलह का त्यागना, ऐसी विहारचर्या ऋषियों के लिए प्रशस्त है। टीका-इस काव्य में साधु की विहार चर्या के विषय में वर्णन किया गया है। यथासाधु को बिना किसी रोगादि के एक ही स्थान पर स्थिर-वास नहीं करना चाहिए; क्योंकि एक 466] दशवकालिकसूत्रम् [ द्वितीया चूलिका