SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुन्नामधिज्जं च पिहुज्जणंमि। चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो, संभिन्नवित्तस्स य हिट्ठओ गइ॥१३॥ इहैव अधर्मोऽ यशोऽकीर्तिः, दुर्नामध्येयं च पृथग् जने। च्युतस्य धर्मादधर्मसेविनः, संभिन्नवृत्तस्य चाधस्ताद् गतिः॥१३॥ पदार्थान्वयः- जो व्यक्ति धम्माउ-धर्म से चुअस्स-पतित है अहम्मसे-विणोअधर्म का सेवन करने वाला है य-तथा संभिन्नवित्तस्स-गृहव्रतों को खण्डित करने वाला है, वह इहेव-इस लोक में अधम्मो-अधर्मी कहलाता है अयसो-अपयश और अकित्ती-अकीर्ति पाता है पिहुजणंमि-साधारण लोगों में दुन्नामधिजं-बदनाम (अपमानित) हो जाता है तथा अन्त में हिट्ठओगइ-परलोक का यात्री बन कर नीच गतियों में उत्पन्न होता है। मूलार्थ-धर्मभ्रष्ट, अधर्म सेवी एवं व्रत-भग्न-कर्ता मनुष्य इस लोक में तो अपयश (अकीर्ति) का भागी होता है, अधार्मिक (म्लेच्छ ) कहलाता है एवं नीच मनुष्यों द्वारा घृणित नामों से पुकारा जाता है तथा परलोक में नरक आदि नीच गतियों में चिरकाल तक असह्य दुःख भोगता है। टीका-इस काव्य में धर्म से पतित मनुष्य की इस लोक और परलोक में होने वाली दुर्दशा का दिग्दर्शन कराया गया है। यथा-जो साधु सांसारिक भोग विलासों के लालच से, धर्म से पतित होकर एवं गृहीत व्रतों को खण्डित करके पुनः संसार में आ जाता है और अधार्मिक कार्य करने लग जाता है, उसकी इस लोक में शुभ पराक्रम न होने के कारण अपकीर्ति होती है ' तथा वह प्राकृत श्रेणी के मनुष्यों द्वारा धर्मभ्रष्ट, कायर, म्लेच्छ, पतित आदि नामों से भी चिड़ाया जाता है। इतना ही नहीं, किन्तु बहुत से सज्जन तो उसे देखते तक नहीं। उसके दर्शन में भी पाप समझा जाता है। यह तो इस लोक की दुर्दशा है। अब परलोक की दशा देखिए, संयम भ्रष्ट मनुष्य, जब दुःखपूर्वक अपना जीवन समाप्त कर परलोक में जाता है, तो वहाँ अच्छा स्थान नहीं मिलता। उसे स्थान मिलता है नरक और नीच तिर्यंच का, जहाँ क्षणभर भी सुख नहीं मिलता। दिन रात की हाय-हाय, मरा-मरा की ही करुण पुकार में सारा जीवन व्यतीत होता है। सूत्रकार का 'अधर्म सेवी' शब्द बतला रहा है कि स्त्री आदि के वास्ते निर्दयतापूर्वक षट्काय के संहार करने वाले अधर्मी जीवों को कदापि सद्गति नहीं मिल सकती है। उत्थानिका- अब फिर विशेष कष्ट पाने के विषय में कहते हैं:भुंजित्तु भोगाइं पसज्झ चेअसा, तहाविहं कट्ट असंजमं बहुं। प्रथमा चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [457
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy