________________ हीलंति णं दुव्विहं कुसीला, दाढुड्डिअं घोरविसं व नागं॥१२॥ धर्माद्दष्टं श्रियोऽपेतं यज्ञाग्निं विध्यातमिवअल्पतेजसम्। हीलयन्ति एनं दुर्विहितं कुशीला:, उद्धृतदंष्ट्र घोरविषमिव नागम्॥१२॥ पदार्थान्वयः- कुसीला-कुत्सित लोक सिरिओ अवेयं-तपोरूप लक्ष्मी से रहित दुविहं-दुष्ट व्यापार करने वाले धम्मा उ भटुं-धर्म से भ्रष्ट णं-उस पुरुष की विज्झाए-बुझी हुई अप्पतेअं-तेजो रहित जन्नग्गिमिव-यज्ञ की अग्नि के समान तथा दादुड्डिअं-जिस की दाढ़े निकाल . दी गई हैं, ऐसे घोरविसं-रौद्र विष वाले नागमिव-सर्प के समान हीलंति-अवहेलना करते हैं। मूलार्थ-जो साधु, धर्म से भ्रष्ट एवं तप के अद्वितीय तेज से हीन हो जाता है; उसकी नीच से नीच मनुष्य भी अवहेलना करते हैं। दुराचारी संयम-भ्रष्ट साधु, लोगों से उसी प्रकार तिरस्कृत होता है, जिस प्रकार तेजःशून्य बुझी हुई यज्ञ की अग्नि और दंष्ट्रा रहित महाविषधारी सर्प तिरस्कृत होता है। टीका-संसार में गुणवानों की ही पूजा होती है, गुणहीनों की नहीं। अत: जो मनुष्य विषय भोगों में फँस कर संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं तथा अन्त-र्जाज्वल्यमान तपोरूप अग्नि के अलौकिक तेज से हीन होकर गतप्रभाव हो जाते हैं तथा निन्द्य व्यवहार करने लग जाते हैं; उनकी धार्मिक पुरुष तो जो अवहेलना करते हैं, वह तो करते ही हैं, किन्तु आचार-हीन नीच पुरुष भी उनको घृणा की दृष्टि से देखते हैं। वे हँसी करके कहते हैं कि क्यों महाराज ! इन्द्रियों पर विजय स्तम्भ स्थापित कर दिया ? वे दिन स्मरण हैं जब हमें दुराचारी कहा करते थे और स्वयं सदाचारी बना करते थे। अब तो तुम से हम ही अच्छे हैं इत्यादि, क्योंकि किसी कार्यक्षेत्र में नहीं जाने की अपेक्षा, कायरता के कारण, जाकर वापिस लौट आना अधिक बुरा समझा जाता है। सूत्रकार ने संयमभ्रष्ट साधु के तिरस्कार की उपमा उपशान्त हुई यज्ञ की अग्नि और उखाड़ी हुई दाढ़ वाले सर्प से दी है। ये उपमाएँ प्रतिपादित विषय को बहुत ही स्फुट करने वाली हैं। यज्ञ की अग्नि जब तक जलती रहती है, तब तक तो लोग उसमें घृत, मधु आदि श्रेष्ठ वस्तुएँ गिराते रहते हैं और उसको हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं; किन्तु बुझ जाने के बाद उसी भस्म हुई अग्नि को बाहर फेंक देते हैं और लोग उसको पैरों तले रोंदते हुए चले जाते हैं। इसी भाँति जब तक सर्प के मुँह में दंष्ठाएँ रहती हैं, तब तक तो सब उससे डरते हैं और दूर भागते हैं; किन्तु जब वही सर्प मदारी द्वारा दंष्ट्राए रहित कर दिया जाता है, तब बड़े आदमी तो क्या, छोटे-छोटे बच्चे भी आकर उसे छेड़ते हैं और लकड़ी से उसे मारते हैं एवं उसके मुँह में अंगुली तक भी दे देते हैं। कितना लज्जाजनक तिरस्कार है, पदभ्रष्टों की यही दुर्दशा होती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार इस लोक के साथ परलोक-सम्बन्धी फल के विषय में भी कहते हैं: 456 ] दशवकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका