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________________ रति-हीन होते हैं, उनके लिए यह चारित्र पर्याय महानरक (रौरव) के समान दुःखप्रद है, क्योंकि वे विषयाभिलाषी होने से हमेशा भगवान् के वेष की विडम्बना ही करते रहते हैं। मानसिक दुःखों का विशेष उदय हो जाने से उनकी आत्मा महान् घोर दुःखों को अनुभव करने वाली हो जाती है। उत्थानिका- अब सूत्रकार प्रस्तुत वर्णन का उपसंहार द्वारा निगमन करते हुए कहते हैं: अमरोवमंजाणिअसुक्खमुत्तमं, . रयाणं परिआइं तहारयाणं। निरओवमंजाणिअदुक्खमुत्तमं, रमिज तम्हा परिआई पंडिए॥११॥ अमरोपमं . ज्ञात्वा सौख्यमुत्तमं, रतानां पर्याये तथाऽरतानाम्। - नरकोप्रमं ज्ञात्वा दुःखमुत्तमं, रमेत तस्मात् पर्याये पण्डितः॥११॥ . पदार्थान्वयः-तम्हा-इस लिए पंडिए-पण्डित साधु परिआई-चारित्र में रयाणं-रत रहने वालों के अमरोवमं-देवोपम उत्तम-उत्तम सुक्खं-सुख को जाणिअ-जान कर तहा-तथा अरयाणं-संयम में रत नहीं रहने वालों के निरओवम-नरकोपम उत्तम-महान् दुक्खं-दुःख को जाणिअ-जान कर परिआइं-संयम के विषय में रमिज-रमण करे। मूलार्थ-संयम में रत रहने वाले, देवों के समान सुख भोगते हैं और संयम से विरक्त रहने वाले, रौरव नरक के समान दुःख भोगते हैं, इस प्रकार सत्य तत्त्व को जान कर बुद्धिमान् साधु को संयम पर्याय में रमण करना चाहिए। टीका-इस काव्य में उक्त प्रकरण का उपसंहार करते हुए निगमन किया गया है जो साधु संयम में सब प्रकार से रति मानने वाले हैं तथा जो संयम में दृढ़चित्त नहीं हैं, उन दोनों के विषय में यह विचार करना चाहिए कि जो संयम में रत हैं, वे तो देवलोक के समान उत्तम सुखों का अनुभव कर रहे हैं; किन्तु जो संयम में अरति रखने वाले हैं, वे महाघोर नरक के समान दुःख भोग रहे हैं। अतः शास्त्रज्ञ मुनि को योग्य है कि वह संयम पर्याय में ही रमण करे; क्योंकि जब उसने दोनों प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर लिया तो फिर उसे संयम में ही प्रसन्नचित्त होना चाहिए। उत्थानिका-संयमभ्रष्ट को इस लोक में होने वाले दोषों का उल्लेख करते हैं:धम्मा उ भट्ठ सिरिओअवेयं, जनग्गि विज्झाअमिवप्पते। प्रथमा चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [455
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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