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________________ पदार्थान्वयः- अज-आज आहं-मैं गणी-आचार्य हुँतो-होता जइ-यदि अहं-मैं भाविअप्पा-भावितात्मा और बहुस्सुओ-बहुश्रुत हो कर जिणदेसिए-जिनोपदेशित सामण्णेसाधु सम्बन्धी परिआए-चारित्र में रमंतो-रमण करता है। ___ मूलार्थ-यदि मैं भावितात्मा और बहुश्रुत होता एवं जिनोपदेशित साधु धर्म में रमण करता, तो आज के दिन महान् आचार्य पद पर सुशोभित होता। टीका-कोई सचेतन साधु पतित हुआ इस प्रकार की विचारणा किया करता है कि "आज तक तो मैं आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हो जाता, यदि मैं शुभ भावनाओं द्वारा अपनी आत्मा की शुद्धि करने वाला होता तथा दोनों लोकों में हितकारी बहुत से आगमों की विद्या से युक्त होता तथा श्री जिनेन्द्र प्रतिपादित श्रमण भाव में रमण करता। मैं तो बड़ा ही मूर्ख निकला, जो साधुत्व छोड़ कर विषय भोगों के जाल में पड़ गया। महान् दुःख है कि मैंने विषय रूपी एक पंकपूर्ण जलबिंदु के लिए अद्वितीय आचार्य पद जैसे महान् गौरव रूपी क्षीरसिन्धु को छोड़ दिया।"सत्र में जिनदेशिते' शब्द प्रकट करता है कि शाक्यादि के उपदेशित किए हए श्रमण भाव में नहीं, किन्तु जिनदेशित श्रमणभाव में ही रमण करने से आत्म विकास का श्रेष्ठ पद 'आचार्य' मिलता है। ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार अधिकारी भेद से संयम को स्वर्ग और नरक की उपमा देते हैं: देवलोगसमाणो अ, परिआओ महेसिणं। रयाणं अरयाणं च, महानरयसारिसो * // 10 // देवलोकसमानस्तु , पर्यायो महर्षीणाम्। रतानामरतानां च , महानरकदृशः // 10 // पदार्थान्वयः- रयाणं-संयमरत महेसिणं-महर्षियों को परिआओ-चारित्र पर्याय देवलोगसमाणो-देव लोक के समान है अ-किन्तु अरयाणं-संयम में रति नहीं रखने वालों को वही चारित्र महानरयसारिसो-महान् नरक के समान है। मूलार्थ-जो महर्षि संयम क्रिया में रत हैं, उन्हें तो यह संयम स्वर्ग लोक के समान सुखदायक हैं, किन्तु जो संयम में अरुचि रखने वाले हैं, उन्हें महान् ौरव नरक के समान दुःखदायक है। टीका-इस गाथा में जो साधु संयम त्यागने की इच्छा रखते हैं, उनको स्थिर करने के लिए यह उपदेश प्रतिपादन किया है। यथा- श्री भगवान् उपदेश करते हैं कि हे आर्यो ! जो साधु संयम पर्याय में रति रखने वाले हैं, उनके लिए यह संयम देवलोक के समान सुखप्रद है; क्योंकि जिस प्रकार देवता देवलोक में नृत्य आदि के देखने में लगे रहते हैं तथा सदैव काल प्रसन्नता से समय व्यतीत करते हैं, ठीक उसी प्रकार साधु भी योगादि क्रियाओं में निमग्न होता हुआ, देवों से बढ़कर सुखों का अनुभव करता है। इसके विपरीत जो साधु संयम क्रियाओं में 454 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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