________________ गइंच गच्छे अणिहिन्जिअंदुहं, बोही असे नो सुलहा पुणो पुणो॥१४॥ भुक्त्वा भोगान् / प्रसह्य चेतसा, तथाविधं कृत्वाऽसंयम बहुम्। / गतिं च गच्छति अनभिध्यातां, दुःखां बोधिश्चास्य न सुलभा पुनः पुनः॥१४॥ पदार्थान्वयः- संयम त्यागी साधु पसज्झ चेयसा-दत्तचित्त से भोगाई-भोगों को भुंजित्तु-भोग कर एवं तहाविहं-तथाविध बहुं-बहुत से असंजमं-असंयम कृत्य कट्ट-करके कालधर्म को प्राप्त होता है तब दुई-दुःख देने वाली अणिहिजिअं-अनिष्ट गइं-नरकादि गति को गच्छइ-जाता है अ-और से-उसे बोही-बोधितत्त्व पुणो पुणो-बारंबार नो सुलहा-सुलभ नहीं होता। __मूलार्थ-संयमभ्रष्ट व्यक्ति, बड़ी लगन से भोगों को भोग कर एवं नानाविध असंयम कार्यों को करके जब मरता है, तो अनिष्ट एवं दुःखद नरकादि नीच गतियों में जाता है। फिर उसे सुखपूर्वक जिन-धर्म-प्राप्ति-रूप बोधि कभी नहीं मिल सकती। टीका-जिस मनुष्य ने संयम वृत्ति का परित्याग कर धर्म की अपेक्षा नहीं रखते हुए .. बड़ी अभिलाषा के साथ विषय भोगों को भोगा है तथा अज्ञोचित्त हिंसाकारी महान् अकृत्य किए हैं; वह असंतोष भाव से कुत्ते की मौत मर कर उन नरकादि गतियों में जाता है, जो स्वभावतः ही भयानक एवं असह्य दुःखप्रद हैं और घोर से घोर दुःखों में पड़ा हुआ भी प्राणी जहाँ जाने की इच्छा नहीं कर सकता। यदि नरक के घोर दुःख भोगने के बाद भी दुःखों से छूट जाए, तो भी सर्वोत्तम है; परन्तु उस को तो दुःखों से भी छुटकारा नहीं मिल सकता है, क्योंकि दुःखों से छुड़ाने वाली जिन-धर्म-प्राप्तिरूप बोधि है और वह उसे अशुभ कर्मोदय के कारण सुखपूर्वक मिल नहीं सकती। प्रवचन विराधना का यही कटु फल होता है, अतः संयमपरित्याग भूल कर भी नहीं करना चाहिए। उत्थानिका- अब फिर इसी नरक गति के विषय में कहते हैं:इमस्स ता नेरइअस्स जंतुणो, दुहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो। पलिओवमं झिज्झइ सागरोवमं, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं॥१५॥ अस्य तावत् नारकस्य जन्तोः, दुःखोपनीतस्य क्लेशवर्तिनः। .. 458 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका