________________ यंदा च पूज्यो भवति, पश्चाद् भवत्यपूज्यः। राजेव राज्यप्रभ्रष्टः, सः पश्चात् परितप्यते॥४॥ पदार्थान्वयः- जया-जब संयमी रहता है, तब तो साधु पूइमो-पूज्य होइ-होता है अ-फिर वही पच्छा-चारित्र से पतित होने के पश्चात् अपूइमो-अपूज्य होइ-हो जाता है रज्जपब्भट्ठोराज्यभ्रष्ट राया व-राजा की तरह स-वह साधु पच्छा परितप्पइ-पश्चात्ताप करता है। मूलार्थ-जब साधु अपने धर्म में स्थित रहता है, तब तो सब लोगों में पूजनीय होता है; किन्तु धर्म से भ्रष्ट हो जाने के पश्चात् वही अपूजनीय हो जाता है। भ्रष्ट साधु , राज्यभ्रष्ट राजा के समान सदा पछताता रहता है। टीका-जब साधु अपने चारित्र धर्म में स्थिर रहता है, तब सब लोग उसकी भोजन, वस्त्रादि से पूजा किया करते हैं; किन्तु जब चारित्र धर्म को छोड़ देता है, तब वही सब लोगों के लिए अपूज्य हो जाता है। उसकी कोई बात नहीं पूछता। जिस प्रकार राजा राज्य से भ्रष्ट हो जाने के पश्चात् पूर्व गौस्व को याद करके, अपने मन में बहुत भारी पश्चात्ताप किया करता है ठीक इसी प्रकार साधु भी संयम से पतित हो जाने के बाद पूर्व दशा को स्मृति में लाकर अपने मन में घुलघुल कर व्यथित होता रहता है। नष्ट गौरव की स्मृति मनुष्य से पश्चात्ताप कराया ही करती है। ___उत्थानिका- अब नजरबंद (दृष्टिनिग्रह) सेठ की उपमा देते हैं:जया अमाणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो। सेट्टि व्व कब्बडे छूढो, स पच्छा परितप्पड़॥५॥ यदा च मान्यो भवति, पश्चाद् . भवत्यमान्यः। श्रेष्ठीव कर्वटे क्षिप्तः, सः पश्चात् परितप्यते॥५॥ पदार्थान्वयः- जया-जब साधु माणिमो-मान्य होता है और पच्छा-शील से भ्रष्ट होने के पश्चात् शीघ्र ही अमाणिमो-अमान्य हो जाता है कव्वडे-अत्यन्त क्षुद्र ग्राम में छूढोअवरुद्ध सेट्ठिव्व-सेठ के समान स-वह पच्छा-पीछे से परितप्पइ-परितप्त होता है। मूलार्थ-संयमधारी सच्चा साध , जब संयम का पालन करता है. तब तो सर्वमान्य होता है। किन्त छोडने के पश्चात अत्यन्त अपमानित हो जाता है। वह संयमभ्रष्ट साधु, ठीक उसी प्रकार रंज करता है, जिस प्रकार किसी छोटे से गाँव में कैद किया हुआ, नगर सेठ रंज करता है। टीका-जब साधु अपने शील और धर्म में स्थिर-चित्त वाला होता है, तब तो वह अभ्युत्थान एवं आज्ञापालन आदि द्वारा सब लोगों से मान्य होता है; किन्तु जब धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, तब फिर वही उन्हीं सत्कार करने वाले लोगों से अमान्य हो जाता है। जिस प्रकार किसी अपराध के कारण राजा की आज्ञा से नगर सेठ किसी क्षुद्र ग्राम में नजरबंद (दृष्टिनिग्रह) किया हुआ पश्चात्ताप करता है; ठीक इसी प्रकार शील धर्म का परित्याग करने वाला साधु भी अमाननीय बन शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से पीड़ित होता रहता है। प्रथमा चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [451