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________________ संतोष आदि धर्मों से च्युत हो जाता है एवं लौकिक गौरव आदि से भी भ्रष्ट हो जाता है; तब वह भी अत्यधिक पश्चात्ताप करता है कि हाय ! मैंने यह क्या अनर्थ किया। इससे तो मैं लोक और * परलोक दोनों से भ्रष्ट हो गया हूँ। पश्चात्ताप करने का कारण यह है कि जब साधु धर्म से स्खलित होता है तब तो मोहनीय कर्म का उदय होता है, जिससे सँभलना कठिन हो जाता है, किन्तु जब पीछे से एक से एक भयंकर दुःख आकर पड़ते हैं और मोहनीय कर्म का उदय हो जाता है, तब वह इन्द्र के समान शोक और परिताप करने लग जाता है। सूत्र में आया हुआ 'छमं' पृथ्वी का वाचक है, क्षमा का नहीं, क्योंकि इसका संस्कृत रूप 'क्षमा' होता है। क्षमा नाम पृथ्वी का है'क्षमा धरित्री क्षितिश्च कुः' इति धनंजयः। उत्थानिका- अब उस साधु को स्वर्गच्युत देवता की उपमा देते हैं:जया अवंदिमो होइ, पच्छा होइ अवंदिमो। देवया व चुआ ठाणा, स पच्छा परितप्पइ॥३॥ यदा च वन्द्यो भवति, पश्चाद् भवत्यवन्द्यः। देवतेव च्युता स्थानात्, सः पश्चात् परितप्यते॥३॥ पदार्थान्वयः-जया-जब साधु संयम में रहता है, तब तो वंदिमो-वन्दनीय होइ-होता है य-और पच्छा-संयम छोड़ने के पश्चात् वही अवंदिमो-अवंदनीय होइ-हो जाता है स-वह साधु ठाणा-अपने स्थान से चुआ-च्युत हुए देवया व-देवता के समान पच्छा-पीछे ये परितप्पइपछताता है। मूलार्थ-जब साधु संयम पालन करता है, तब तो सब लोगों से अभिवन्दनीय होता है किन्तु जब संयम से च्युत हो जाता है, तब वही सब लोगों से तिरस्करणीय हो जाता है। संयम-च्युत साधु , उसी प्रकार पश्चात्ताप करता है, जिस प्रकार स्थानच्युत देवता पश्चात्ताप किया करता है। ___टीका-जिस समय साधु , अपने संयम स्थान में स्थिर-चित्त रहता है एवं संयम का अच्छी तरह पालन करता है, उस समय तो वह राजा आदि प्रधान पुरुषों द्वारा वन्दनीय होता है, किन्तु वही साधु , जब संयम धर्म को छोड़ कर भोगी गृहस्थ हो जाता है, तब उन्हीं सत्कार करने वाले मनुष्यों से ही असह्य तिरस्कार पाता है। तिरस्कार क्या, कभी-कभी तो उसकी ऐसी दुर्गति होती है कि गलितकाय श्वान की तरह वह जहाँ जाता है, वहीं से हठात् दुतकारा जाता है। तिरस्कृत होने पर वह बहुत पश्चात्ताप करता है। किस प्रकार करता है, इसके लिए स्थान च्युत देवता की उपमा दी गई है। जिस प्रकार स्थानच्युत देवता अपने पूर्वकालीन सुखों को एवं अखण्ड गौरव को याद कर करके शोक करता है, उसी प्रकार साधु भी संयम से भ्रष्ट होकर संयम सम्बन्धी गौरव को बारंबार स्मरण करके, सर्वदा अपने मन में अधिक पछताता रहता है। उत्थानिका- अब उसको राज्यभ्रष्ट राजा की उपमा देते हैं:जया अ पूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो। राया व रज्जपब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पड़॥४॥ 450 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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