________________ उत्थानिका- अब मत्स्य का दृष्टान्त दिया जाता है:जया अ थेरओ होइ, समइक्कंत जुव्वणो। मच्छु व्व गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पइ॥६॥ यदा च स्थविरो भवति, समतिक्रान्तयौवनः / मत्स्य इव गलं (बडिशं.)गिलित्वा, सः पश्चात् परितप्यते॥६॥ पदार्थान्वयः-अ-जो साधु जया-जब समइक्कंतजुव्वणो-यौवनावस्था के बीत जाने पर थेरओ-स्थविर हो जाता है, तब संयम का परित्याग करता है स-वह गलं-बडिश को गिलित्तानिगल कर व्व-जैसे मच्छु-मत्स्य पश्चात्ताप करता है, तद्वत् पच्छा-पीछे से परितप्पइ-दुःखित होता है। मूलार्थ-जो साधु यौवन अवस्था के अतीत हो जाने पर स्थविरावस्था में संयम छोड़ता है, वह लोह-कंटक के गले में फँस जाने पर मछली के समान पश्चात्ताप करता . टीका-जिस प्रकार मछली, भोजन के लोभ से धीवरों द्वारा गिराए हुए लोह-कंटक को निगल लेती है और फिर गले के अवरूद्ध हो जाने पर पश्चात्ताप करती है; इसी प्रकार यौवन अवस्था के व्यतीत हो जाने पर वृद्धावस्था के समय संयम से पतित होने वाला साधु भी पश्चात्ताप करता है, क्योंकि मत्स्य न तो उस बड़िश को गले के नीचे उतार सकता है और न गले से बाहर निकाल सकता है; ठीक इसी तरह साधु भी न तो भोगों को भोग ही सकता है और न उनसे मुक्त हो सकता है। यों ही कष्टमय जीवन समाप्त कर मत्स्य के समान अन्त में मृत्यु के मुँह में पहुँच जाता है। उत्थानिका- अब बंधन-बद्ध हस्ति की उपमा देते हैं:जया अ कुकुडंवस्स, कुतत्तीहिं विहम्मइ। हत्थी व बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पइ॥७॥, यदा च कुकुटुम्बस्य, कुतप्तिभिर्विहन्यते / हस्तीव बंधने बद्धः, सः पश्चात् परितप्यते॥७॥ - पदार्थान्वयः-जया-जब संयम त्यागी साधु कुकुडंवस्स-दुष्ट कुटुम्ब की कुतत्तीहिंदुष्ट चिन्ताओं से विहम्मइ-प्रतिहनित होता है, तब वह साधु बंधणे-बद्धो-विषय के लालच से बंधन में बँधे हुए हत्थीव-हस्ति के समान पच्छा-पीछे से परितप्पइ-पछताता है। मूलार्थ-संयम भ्रष्ट साधु को, जब नीच कुटुम्ब की कुत्सित चिंताएँ चारों ओर से अभिभूत करती हैं; तब वह बन्धन-बद्ध हस्ति के समान नितान्त पश्चात्ताप करता है। टीका-जब साधु संयम से पतित हो जाता है, तब उसे अनुकूल परिवार के न मिलने के कारण प्रतिकूल चिंताओं से उसकी आत्मा प्रतिदिन दग्ध होने लगती है। जिस प्रकार हाथी बंधनों से बँधा हुआ घोर दुःख भोगता है, इसी प्रकार वह साधु भी विषय रूप बन्धनों से बँधा 452 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका