________________ होने में कोई लाभ नहीं है। (4) जो मुझे किसी कारण से यह दुःख हो गया है, वह चिरकाल तक रहने वाला अर्थात् स्थायी नहीं है। दुख के बाद सुख, रथ के पहिए की तरह मनुष्य पर आते जाते ही रहते हैं। "कस्यैकान्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततोवा, नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।" इस कष्ट को सहन करने से कर्मों की निर्जरा और शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी। यदि नहीं सहन किया तो नरकादि गतियों की प्राप्ति होगी; जिससे बहुत अधिक कष्ट भोगना पड़ेगा। अत: मेरा कल्याण तो संयम पालन करने में ही है; मैं गृहस्थी नहीं हो सकता हूँ। (5) संयम में स्थिर रहने से, व्यवहार पक्ष में तो राजा महाराजा आदि लोग हाथ जोड़ कर सब प्रकार से भक्ति करते हैं; परन्तु संयम के त्यागने पर नीच से नीच मनुष्यों की भी सेवा करनी पड़ेगी। उसके कहे हुए असह्य वचन सहन करने पड़ेंगे। यह सब धर्म और अधर्म का प्रत्यक्ष फल है; अतः गृहस्थावास से मेरा क्या प्रयोजन है। (6) जिन विषय भोगों को मैं हजारों लोगों की साक्षी में वमन (त्याग) कर चुका हूँ (त्याग चुका हूँ) फिर उनका ही गृहवास में आसेवन करना होगा। वमन को तो कुत्ता, गीदड़ आदि नीच जीव ही ग्रहण करते हैं, श्रेष्ठ जन नहीं। दीक्षित होने से मैं श्रेष्ठ हूँ, मुझे इन उद्वमन किए हुए सब विषय भोगों का पुनः भोगना कदापि योग्य नहीं है। (7) गृहस्थावास में रहते हुए धर्म रहित व्यक्तियों को नीच गतियों की ही प्राप्ति होती है। क्योंकि उनसे फिर धर्म होना कठिन हो जाता है। जो पहले से ही गहवास में रहते हैं. वे तो कुछ अपना उद्धार कर भी लेते हैं, किन्तु जो साधु से फिर गृहस्थ में जाते हैं, वे अपना उद्धार किसी भी तरीके से नहीं कर सकते। (8) पुत्र, कलत्रादि को शास्त्रकारों ने पाश की उपमा दी है और गृहपाश में बँधे हुए गृहस्थों को फिर सुगमता से धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। कारण कि कतिपय स्त्री और पुत्र आदि व्यक्तियों के स्नेह पाश में जकड़े जाने के बाद प्रमाद विशेष बढ़ जाता है, जिससे धर्म में समय लगाना कठिन हो जाता है। (9) बहुत से इस प्रकार के रोग हैं कि जो तत्काल ही जीव और शरीर को अलग-अलग कर देते हैं, जैसे विषूचिका ग्रन्थि आदि रोग। ये रोग, जो धर्म से रहित व्यक्ति है, उनको शीघ्र ही घेर कर लेते हैं। उस समय वह कुछ नहीं कर सकता। बेचारा हताश होकर रोता-पीटता पाप की भारी गठड़ी सिर पर उठाए, अधोगतियों में दुःख भोगने के लिए चल देता है। अतएव मैं गृहस्थ होकर क्या लाभ प्राप्त करूँगा ? मैं तो साधु ही रहूँगा और धर्म का संचय करूँगा, जिससे मृत्यु चाहे कभी चली आए निर्भयता बनी रहेगी। (10) गृहस्थों को जो इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग होता है, तभी वे लोग इन संकल्पों के द्वारा ही वध को प्राप्त होते हैं, क्योंकि इससे वे कभी सुखी, कभी दुःखी, कभी प्रसन्न और कभी उदास रहते हैं। उसका जीवन तो क्षण-क्षण में होने वाले सुख दुःखों की चोटों से सर्वदा छिन्न-भिन्न रहता है। अतः मुझे गृहस्थ बनने से कोई लाभ नहीं। (11) कृषि कर्म, पशुपालन और वाणिज्य आदि के करने से तथा शीत, उष्ण, वर्षा की पीड़ा सहने से तथा घृत लवणादि की अनेक प्रकार की चिन्ताओं से गृहस्थावास में क्लेशपूर्वक समय व्यतीत होता है, किन्तु यह संयम स्थान सर्वथा क्लेश से रहित है; क्योंकि इसमें उक्त सभी क्रियाओं का अभाव है। अतः मुझे इस निन्दित गृहस्थावास से क्या लाभ है। (12) गृहस्थावास बन्धन रूप है। इसमें जीव उसी प्रकार फँस जाता है जिस प्रकार रेशम का कीड़ा रेशम के कोश में फँस जाता है और छटपटा कर वहीं पर मर जाता है। इसके विपरीत चारित्र धर्म मोक्ष रूप है, क्योंकि चारित्र द्वारा ही सब कर्म क्षय किए जाते हैं। (13) यह गृहवास पाप रूप भी है, क्योंकि इसमें हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह आदि सब बुरे काम करने पड़ते हैं। इसके विरूद्ध प्रथमा चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [447