________________ है 15, मणुआणं-मनुष्यों का जीविए-जीवन कुसग्ग-जलबिंदुचंचले-कुशा के अग्रभाग पर . ठहरे हुए जलबिंदु के समान चंचल है, अतः खलु-निश्चय रूप से अणिच्चं-अनित्य है 16, मे-मैंने बह-बहुत ही पावं कम्म-पाप कर्म किया है, जिससे मेरी बुद्धि विपरीत हो रही है 17, च-तथा भो-हे शिष्यो ! दुच्चिण्णाणं-दुष्टभावों से आचरण किए हुए दुप्पडिकंताणं-मिथ्यात्व आदि से उपार्जन किए हुए पुट्विं कडाणं-पूर्वकृत पावाणं कम्माणं-पाप कर्मों के फल को वेइत्ता-भोगने के पश्चात् ही मुक्खो -मोक्ष होता है अवेइत्ता-बिना भोगे नत्थि-नहीं होता वा-किंवा पूर्वकृत कर्मों को तवसा-तप द्वारा झोसइत्ता-क्षय करके मोक्ष होता है 18, अट्ठारसमं-यह अट्ठारहवाँ पयं-पद भव-है और इत्थ-इस पर सिलोगो भवइ-श्लोक है, जो संग्रह रूप है। मूलार्थ-हे शिष्यो ! इस दुष्षम काल में दुःखपूर्वक जीवन व्यतीत होता है 1 . गृहस्थ लोगों के काम भोग तुच्छ और क्षणस्थायी हैं 2 वर्तमान काल के बहुत से मनुष्य . छली एवं मायावी हैं 3 यह जो मुझे दुःख उत्पन्न हुआ है, वह चिरकाल पर्यंत नहीं रहेगा 4 संयम के त्यागने से नीच पुरुषों की सेवा करनी पड़ेगी 5 वान्त भोगों का पुनः पान करना होगा 6 नीच गतियों में ले जाने वाले कर्म बँधेगे 7 पुत्र पौत्रादि गृहपाशों में फँसे ' हुए गृहस्थों को, धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है 8 विषूचिकादि रोग धर्महीन के वध के लिए होते हैं 9 संकल्प-विकल्प भी उसको नष्ट करने वाले हैं 10 गृहस्थावास तो क्लेश से सहित है और चारित्र क्लेश से रहित है 11 गृहवास बन्धनरूप है और चारित्र मोक्षरूप है. 12 गृहवास पापरूप है और चारित्र पाप से सर्वथा रहित है 13 गृहस्थों के काम भोग बहुत से जीवों को साधारणरूप हैं 14 प्रत्येक आत्मा के पुण्य एवं पाप पृथक् पृथक् हैं 15 मनष्य का जीवन कश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्द के समान चंचल है. अतएव निश्चित रूप से अनित्य है 16 बहुत ही प्रबल पाप कर्मों का उदय है, जो मुझे ऐसे निन्द्य विचार उत्पन्न होते हैं 17 दुष्ट विचारों से एवं मिथ्यात्व आदि से बाँधे हए, पर्वकत कर्मों के फल को भोगने के पश्चात ही मोक्ष होता है, बिना भोगे नहीं अथवा तप द्वारा उक्त कर्मों का क्षय कर देने पर मोक्ष हो सकता है 18 यही अट्ठारहवाँ पद है, इस पर इसी विषय के प्रतिपादक भोक भी हैं टीका-गुरु कहते हैं, हे शिष्यो ! उस संयम त्यागने वाले व्यक्ति को योग्य है कि वह यह विचार करे। यथा- यह दुःसम काल है, इसमें प्रत्येक मनुष्य का जीवन प्रायः दुःखपूर्वक ही व्यतीत होता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है। राजादि लोग, जिनके पास सब सामग्री विद्यमान है, वे भी अपना जीवन दुःख-पूर्वक ही व्यतीत करते हुए देखे जाते हैं। किन्तु जिसके पास गृहस्थाश्रम योग्य कोई भी सामग्री नहीं है, तो फिर उसको विडम्बना और कुगति के अतिरिक्त और क्या मिल सकता है। अतः मुझे गृहस्थाश्रम से क्या प्रयोजन है, मैं क्यों दुःख भोगूं। इस प्रकार प्रथम स्थान का विचार करना चाहिए। (2) इस दुःसम काल में गृहस्थों के काम भोगअतीव तुच्छ और अल्पकालस्थायी हैं; देवों के समान चिरस्थायी नहीं हैं। अतः मुझे इस तुच्छ गृहस्थाश्रम से क्या प्रयोजन ? तुच्छ सुखों के लिए क्यों संयम रुपी अमूल्य धन कोष को नष्ट करूँ। (3) इस दुःसम काल में बहुत से मनुष्य छल कपट करने वाले हैं। अतः विश्वासघाती मनुष्यों में रह कर सुखों का उपभोग किस प्रकार हो सकता है। छलीया मनुष्य तो हमेशा दुःख के ही देने वाले होते हैं तथा छल कपट द्वारा महादुष्कर्मों का बन्ध भी होता है, अतः मुझे गृहस्थ 446 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका