________________ चारित्र पाप से रहित है; क्योंकि उसमें उक्त क्रियाओं का सर्वथा विरोध किया जाता है। (14) . गृहस्थों के यावन्मात्र काम भोग हैं, उन में राजा और चोर आदि इतर जन भी भाग लेने की आशा रखते हैं अर्थात कर आदि द्वारा राजा धन लेता है और कभी-कभी चोर भी चोरी करके सर्वनाश कर जाता है। अतः वे संसारी काम भोग बहुत ही साधारण हैं। (15) संसार में जितने भी लोग बसते हैं, वे सब अपने किए हुए पुण्य-पापों का फल भोगते हैं। किन्तु कोई भी, अन्य किसी के किए हुए कर्मों के फल को नहीं भोग सकता। अतः जब स्वकृत कर्मों के फलों को स्वयं ही भोगना है, तो फिर गृहस्थावास से क्या प्रयोजन, क्योंकि स्त्री, पुत्रादि मेरे कर्मों को तो आपस में विभक्त नहीं कर सकते हैं। (16) मनुष्य का जीवन क्षण भङ्गर है। इसकी उपमा कुशा के अग्रभाग पर पड़े हुए जलबिंदु से दी गई है। जैसे वह हवा के झोंके के साथ ही गिर पड़ता है और नष्ट हो जाता है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी रोग आदि अनेक उपद्रवों के कारण से देखतेदेखते ही नष्ट हो जाता है। अतः क्षण विनाशी मानवीय जीवन ही के तुच्छ भोगों के लिए मैं क्यों साधुत्व छोड़ कर गृहस्थ लूँ। (17) मेरे अत्यन्त पाप कर्मों का उदय है, जो मेरे शुद्ध हृदय में इस प्रकार के अतीव अपवित्र विचार उत्पन्न होते हैं; क्योंकि जो पुण्यवान् पुरुष होते हैं, उनके भाव तो चारित्र में सदैव ध्रुव की उपमा से स्थिर हुए रहते हैं। पाप कर्मों के उदय से ही मनुष्य का लक्ष्य अधःपतन की ओर होता है। (18) प्रमाद कषाय के अथवा मिथ्यात्व अविरत आदि के वशीभूत होकर, जो पूर्वजन्म में मैंने पाप कर्म किए हैं, उनको भोगे बिना मोक्ष नहीं मिल सकता है। कृत कर्मों को भोगने के पश्चात् ही जीव, दुःखों से छुटकारा पा सकता है। अतः मैं इस आई हुई विपत्ति को क्यों नहीं भोगूं। इसके भोगने से ही मैं कर्म-बन्धन मुक्त हो सकूँगा अथवा उत्कृष्ट तप द्वारा ही कर्म क्षय किए जा सकते हैं; जिसके फल स्वरूप मोक्ष-प्राप्ति होती है। अतएव मुझे भी योग्य है कि मैं तप करके अपने कृत कर्मों को क्षय करूँ और अक्षय मोक्ष सुख का भागी बनें। इस प्रकार इन अष्टादश स्थानों को अपनी सूक्ष्म-तर्कणा बुद्धि द्वारा संक्षिप्त रूप से किंवा विस्तार रूप से परिस्फुटतया विचारना चाहिए, क्योंकि इस विचार से चित्त की सम-भाव पूर्वक स्थिरता होती है और संसार की दशा का पूर्ण परिचय हो जाने से आत्मा, संयम भाव में संलग्र हो जाती है। यह अष्टादश स्थानों का उत्कष्ट प्रभाव है. जिस के करने से संसारसागर में व्यर्थ डूबती हुई आत्माएँ भी सँभल गई हैं और अपना कार्य सिद्ध कर गई हैं। अब इन स्थानों पर शिक्षा रूप श्लोक भी प्रतिपादन किए गए हैं, जो अतीवं गम्भीर एवं मननीय हैं। उनमें उक्त अङ्कों का वा अन्य विषयों का बड़ा ही स्फीत (विस्तृत) दिग्दर्शन कराया गया है। इति गद्यम्॥ उत्थानिका-संयम छोड़ने वाला साधु, आगामी काल को नहीं देखता; अब यह कहते हैं: जया य चयई धम्मं, अणजो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिए बालो, आयइं नावबुज्झइ॥१॥ यदा च त्यजति धर्मं, अनार्यः भोगकारणात्। स तत्र मूछितो बालः, आयतिं नावबुद्धयते॥१॥ .. 448 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका