________________ मूलार्थ-हे शिष्यो ! किसी बड़ी भारी आपत्ति के आ जाने पर, जिस साधु के. चित्त में संयम की तरफ से अरूचि हो जाए; किन्तु जब तक संयम नहीं छोड़े, तब तक उसको जिन शासन में ये वक्ष्यमाण अष्टादश स्थानक सम्यक्तया विचारणीय हैं; जो घोड़े को लगाम, हाथी को अंकुश और जहाज को ध्वजा के समान हैं। टीका-इस पाठ में इस बात का प्रकाश किया गया है कि संयम त्याग करने वाले मनिको योग्य है कि वह संयम त्यागने से पहले, वक्ष्यमाण अट्ठारह बातों का अपने अन्त:करण में अच्छी प्रकार विचार करे; क्योंकि सम्यग् विचारी हुई ये अट्ठारह शिक्षाएँ शारीरिक वा मानसिक दुःखों के उत्पन्न हो जाने के कारण, संयम में अरति रखने वाले संयम त्यागी साधु के चित्त को उसी प्रकार स्थिर कर देती हैं, जिस प्रकार चंचल अश्व को लगाम वश में कर लेती है, मदोन्मत्त हाथी को अंकुश वश में कर लेता है तथा मार्ग च्युत जहाज को पताका सन्मार्ग पर लाती है। उत्थानिका- अब अष्टादश स्थानों का उल्लेख करते हैं: तंजहा- हं भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी 1 लहु-सगा इत्तिरिआ गिहीणं कामभोगा 2 भुजो असाइ-बहुला मणुस्सा 3 इमे अ मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ 4 ओमजणपुरकारे 5 वंतस्स य पडिआयणं 6 अहरगइ वासोवसंपया 7 दुलहेखलु भो! गिहीणंधम्मै गिहीवासमझे वसंताणं 8 आयंके से वहाय होइ 9 संकप्पे से वहाय होइ 10 सोवक्केसे गिहवासे, निरुवक्केसे परिआए 11 बंधे गिहवासे, मुक्खे परिआए 12 सावज्जे गिहवासे, अणवज्जे परिआए 13 वहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा 14 पत्तेयं पुनपावं 15 अणिच्चे खलु भो ! मणुआण जीविए कुसग्गजलबिंदु- चंचले 16 बहुंच खलु भो ! पावं कम्म पगडं 17 पावाणं च खलु भो ! कडाणं, कम्माणं, पुरि दुच्चि-नाणं, दुप्पडिकंताणं, वेइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता 18 अट्ठारसमं पयं भवइ। भवइ अइत्थ. सिलोगो दशवैकालिकसूत्रम्- . [ प्रथमा चूलिका