________________ मन्दोपि न प्रवर्तते।' यहाँ सूत्र समाप्ति पर सूत्र के विषय में एक बात यह कहनी आवश्यक है कि यह सूत्र प्रायः चारित्र का ही प्ररुपक है। परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि केवल चारित्र से ही कार्य सिद्धि हो जाती है, इसमें अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं।' चारित्र कार्य सिद्ध करने वाला तो अवश्य है; किन्तु ज्ञान दर्शन के साथ ही है, अकेला नहीं। स्वयं सूत्रकार ने भी सप्तम अध्ययन की 'नाणदंसणसंपन्नं' 49 वीं गाथा में यही वर्णन किया है। क्योंकि ज्ञान द्वारा सभी वस्तु भाव जाने जाते हैं, फिर दर्शन द्वारा उन पर दृढ़ विश्वास किया जाता है और चारित्र द्वारा पुरातन कर्मों का क्षय तथा नूतन कर्मों का निरोध किया जाता है। अतः संक्षिप्त सार यह है कि 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः'- ज्ञान और क्रिया से ही मोक्ष होता है। ज्ञान-पूर्वक ही . की हुई क्रिया फलवती होती है। अब पाठक वृन्द की सेवा में निवेदन है कि यदि आप को मोक्ष प्राप्त करने की सच्ची लगन लगी है, तो सदा ज्ञानपूर्वक ही क्रिया करो। इसी से जन्म-मरण के बंधन कटेंगे। इसी से आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन कर, अक्षय सुख एवं अनन्त वीर्य से युक्त सादि अनन्त सिद्ध पद प्राप्त कर सकेगी। "श्रीसुधर्मा स्वामी जी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् शिष्य ! इस सभिक्षुः / नामक दशवें अध्ययन का जैसा अर्थ मैंने श्री वीर प्रभु से सुना है, वैसा ही मैंने तेरे प्रति कहा है, अपनी बुद्धि से कुछ नहीं कहा।" इति दशमध्ययन समाप्त। ॥इति श्री दशवैकालिकसूत्रं समाप्तम्॥ दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [442